Saturday, November 19, 2011

शिकारा

रात की काली घनी ज़ुल्फों में
अनगिनत से हीरे जड़े हुए थे।
ज़मीन पर इक शबनमी झील
वक़्त के साथ थम सी गई थी।
आसमानी चादर की सिलवटें
झील के रेशम पर पड़ रहीं थी।
एक शिकारा झील पर हौले से
चुप-चाप खुद ही बढ़ा जाता था।
दो जिस्म उस पर यूँ सवार थे के
बिजली-आन्धी की आवाज़ भी
उन दो साँसों को न छेड़ पातीं।
वो नज़रें एक दूजे में यूँ गुम के
कोई तूफाँ भी उन्हें टोक न पाता।
हथेलियाँ भी कुछ ऐसी बंधीं हुईं
के शायद क़यामत में भी न छूटें।
उन घुलती रूहों की सिकी आँहों में
समां पिघल-पिघल सा जा रहा था।
उन धड़कनों की ज़िंदा मौज पर झूम
ज़मीन भी उछल फ़लक चूमने लगी थी।
और इस तिलिस्मी कायनात के बीच
झील पे तैरता वो शिकारा, उस रुके
वक्त की उफ़क़ में गुम हुआ जा रहा था।


No comments:

Post a Comment