Friday, September 30, 2011

मुहावरे

मुहावरे कुछ बुदबुदाते,
चिड़चिड़ी सी
पड़ोस की दादी ने
हमें अपने आँगन
से खदेड़ दिया.

दोपहर का वक़्त
उनकी और उनकी
हिंदी व्याकरण की
पुरानी किताबों के
पन्नों का वक़्त था.

अपने ज़माने में भी
घर से लड़के, दादाजी
की मदद से पढ़ी थी.
और फिर छब्बीस साल
छठी से दसवीं पढ़ाई थी.

स्कूल तो खत्म हो गया
पर टीचरी वैसी ही रही.
मोहल्ले के बच्चे भी
उनकी तरह एक दूजे को
मुहावरों में कोसते थे.

"पूरी हिंदी ज़ुबां मैंने,"
दादी अक्सर कहती,
"छान पढ़ी है, पर जो
 सुकूं मुहावरों में है, वो
संज्ञा विशेषण में कहाँ?"

घर वाले सुन सुन कर
अब आदि हो चुके थे.
पडोसी मुस्कुरा देते थे.
नए लोगों को पर संभलते
ज़रा सा वक़्त लगता था.

ऐसा लेकिन कभी न हुआ
के मिलकर एक दफे कोई
दादी को भूल सका हो.
भले प्यार से या चिड़ से, वो
सबकी 'दादी मुहावरा' थी.

दादी, खैर अब नहीं रही.
पर आज भी जब उस
गली  के दोस्त मिलते हैं,
तो हाथ मिलाते गालियाँ
मुहावरों में ही निकलती हैं.









Thursday, September 29, 2011

न जाने























सुबह का सूरज अब सीधे
मेरी बालकनी पर आएगा.
पर वो चितकबरे परछाई के
धब्बे अब और न बनेंगे. 

गर्म रातों की हलकी हवा में 
हिलते पत्तों की सुकून भरी
बरसात के बूँदों की सी  
आवाज़  अब न सुनाई देगी.

आसमान नापते परिंदे जो
कभी चहचहाने  सुस्ताने के
बहाने रुक जाया करते थे
बस सीधे उड़ जाया करेंगे.

अपनी मस्ती में चूर और
दुनिया से बेखबर कूदते
उछलते लंगूर अब रेलिंग 
पर और बैठा नहीं करेंगे.

रात सोने के पहले
दरवाज़ा बंद करते हुए
वो गिरे सूखे पत्ते बाहर
अब निकालने न पड़ेंगे.

कभी रेलिंग पर खड़ा देख
मुझे, डाल से डाल फुदकते
उस घोंसले के काले परिंदे दो
अब और शोर नहीं करंगे.

सड़क किनारे का वो पेड़ जो
मेरी बरसाती तक पहुँचता था
आज काट दिया किसीने, जाने
वो परिंदे अब कहाँ जा रहेंगे.



शोर

यूँ चुप क्यों,
सब पूछते हैं .
उनसे क्या कहूँ,
लफ्ज़ नहीं हैं.
मैं अब तक शायद,
यूं ही बोलता रहा.
बस अब बातों में
कोई मन नहीं है.
चुप्पी भी ज़रा
आज़मा के देख लूं.
खामोशी का शोर पर,
कुछ कम नहीं है.

Tuesday, September 27, 2011

तीलियाँ

घर साफ़ करते आज
माचिस की एक पुरानी
डिब्बी मिली, जिस में
सिर्फ दो तीलियाँ थी, एक
जली हुई और एक साबुत.
ज़रुरत तो कुछ थी नहीं
वो बची हुई तीली मगर
फिर भी जलाली और
बैठ उसे पूरा जलता देखा.
उन चन्द रौशन लम्हों में
बचपन के वो नटखट
पल याद आ गए जब
माँ से छुपा-छुपा कर यूँ ही
माचिस की तीलियाँ जलाते थे. 

Monday, September 26, 2011

?

हुआ क्या है, न  जाने क्यों,
ख़ास कोई वजह भी  नहीं है.  
पर आज मुआफ करना  मुझे,
लिखने का मन ही नहीं है.

Sunday, September 25, 2011

कीमत

ओस का एक कतरा
बारिश की एक बूँद
देख याद आता है उन
आँखों से छलका और
रुखसार पे फिसलता
वो रौशन एक मोती.

इन्हें यूँ ज़ाया न कीजे
मैं बस एक अदना सा
आम आदमी हूँ, इनकी
कीमत न चुका सकूँगा.



Saturday, September 24, 2011

ज़ुकाम

I have a very bad cold today with my not so subtle sneezes constantly buzzing in my head. Amongst these my friend Laasya told me that she was going home for the weekend and a lot of goodies awaited her. I couldn't help typing a few home yearning lines in reply. The following is a result of that start.


देहलीज़ पे तड़के पहुँच के,
वो दरवाज़ा खटखटाना है,
सामान कमरे में रख कर,
सोफे पे ज़रा सुस्ताना है.
गिलास भर ठंडा पानी और
थोड़ी माँ कि डांट खानी है,
कटोरी भर घर कि दाल
के साथ थोड़ा चावल खाना है.
दोपहर कि धुप में ज़रा बैठ
फिर अपने बिस्तर सो जाना है.
श्याम की गपशप के साथ
सुबह का अखबार निपटाना है.
और रात सबके साथ बैठकर ,
देर तक हसना हसाना है.

खैर, इन मीठे ख़यालों के बीच
कमबख्त इस छींक को आना है.
ज़ुकाम बड़ा परेशान कर रहा है,
आज, मुझे भी घर जाना है.

Friday, September 23, 2011

चाबी वाली घड़ी

हमारे ज़माने में तो
घड़ी में हम हर रोज़
चाबी भरा करते थे.
सुबह सुबह जब हम
घर से निकलने की
तैयारी में होते थे,
तब आपकी चाची
हाथ में लाकर वो
चमचमाती स्टील की,
काले चमड़े की पट्टी लगी
हमारी घड़ी थमा देती थी.
एहतियात से फिर हम
अपने रुमाल से एक दफा
हलके से पौंछकर उसमे
ठीक आठ चाबियाँ भरते थे.
और हमारे अगले चौबीस घंटे
बिलकुल पाबंध हो जाते थे.
वो हलकी चलती टिक टिक
मिनट दर मिनट हमें, चलते
वक़्त की धड़कन सुनाती थी.
तुम्हारी आज कल की रंग बिरंगी
सेल्ल वाली घड़ियों में ये बात कहाँ? 

चाचा जब भी अपनी पुरानी
घड़ी की यूँ बात करते थे,
मुझे हसी तो आती ही थी
जल के गुस्सा भी हो जाता है.
उनकी घड़ी से हमारी घड़ी
कोई कम तो नहीं, तो क्यों
खामख्वा की शेखियां बघारते हैं?

इस बार अपनी सालगिरह पर
मुझे उसी ज़माने की घड़ी मिली.
अब मैं भी अपने दोस्तों को
बड़े नाज़ से चाचा के ज़माने की
घड़ी की खूबियाँ सुनाता हूँ.


Thursday, September 22, 2011

बरसात

दो लब यूँ थके से
जुड़ते न बनते थे.
वो पलकें बोझल
खुलने से नाराज़ थीं.
ज़ुल्फों की उलझी गांठें
सुलझाती शोख उंगलियाँ.
माथे पर परेशान करती
एक हलकी सी शिकन
और गालों पे चुपके से
सरकती एक बरसात
की मद्धम सी ठंडी धार.

बरसात,
सच मुझे बहुत पसंद है.


बस एक चाय की क़सर

धुंधली कायनात के
कोहरे के परदे के पीछे
लुक्का छिपी खेलती
उस नम से सूरज की
शरारती ओसीली रौशनी
रह रह के मुझे छेड़ती है.

"क्या अल्साए जाते हैं,
माना मौसम का असर है.
सुबह भले कुछ सुस्त सही,
बस एक चाय की क़सर है."

*This is for yesterday as I couldn't post owing to unavoidable circumstances.

Tuesday, September 20, 2011

नई किताब

कुछ चन्द आखिरी पन्ने थे
जो आज पलट के पढ़ लिए.
हाथ नई इक किताब आई है
देखूँ पन्ने इसके क्या कहते हैं.

Monday, September 19, 2011

गई रात का ख्वाब

गई रात का ख्वाब
सुबह आँख खुलते
मैंने चन्द लफ़्ज़ों में
कैद कर लिया है.
रात फिर आज
उसे पढ़ के सोऊंगा.
के वो हसीं ख्वाब
एक बार फिर देखूँ.

Sunday, September 18, 2011

मय

मय बेखबर है.
खुद अपना असर
नहीं जानती है वो.

मयकश जानकार भी
क्यों उसे कमबख्त
पुकारता फिरता है?

Saturday, September 17, 2011

मसरूफ

दिन आज का मसरूफ रहा
कुछ भी काम न करने में.
देखें क्या क़यामत लाती है,
आने वाली सुबह कल की.

Friday, September 16, 2011

सवाल-जवाब

कौन कैसे क्यों
वो यूँ इसलिए.
क्या  कब कहाँ
ये अब यहाँ.

Thursday, September 15, 2011

छोटी छोटी खुशियाँ

छोटी छोटी खुशियाँ
दिन में कई होती हैं.
ज़रुरत बस इतनी है
की हम उन्हें पहचानें.
कोशिश करता हूँ के
रोज़ की कमस्कम,
एक तो ज़रूर पहचानूँ.

जैसे आज, मैंने अपनी
एक नई मिली किताब पर
अंग्रेज़ी और हिंदी में अपना,
काली स्याही में नाम लिखा. 

Wednesday, September 14, 2011

तब आप होते हैं

अभी कुछ कभी कुछ देख,
यहाँ कुछ वहाँ कुछ सुन,
अब कुछ तब कुछ छूँ,
ये कुछ वो कुछ महक,
कल कुछ आज कुछ ज़ायके,

जब मुझे महसूस होते हैं
ख़यालों में तब आप होते हैं.



Tuesday, September 13, 2011

जीएगा कब?

बचपन में वो बड़े सवाल करता था,
जवानी उनके जवाब ढूँढने  में कट गई.
आगे के साल जवाब बटोरने में बीते,
बाकी उम्र अगर उन्हें समझते बीतेगी,

तो वो जीएगा कब?




Monday, September 12, 2011

गुम

कभी लिखते हुए
स्याही ख़त्म हो जाती है,
और कभी अचानक
कलम की नोक टूट जाती है.
कभी शायद
काग़ज़ ख़त्म हो जाते हैं,
और कभी  कभी
ख़याल गुम हो जाते हैं.

हर सूरत में लिखना  मगर
रुक के शुरू हो सकता है.

पर क्या हो ग़र कभी,
जिस रौशनी में लिखते थे,
बेवक्त एक अनंत अँधेरे में
वो अचानक गुम हो जाए?

Sunday, September 11, 2011

क्यों

क्यों घुट रहा हूँ
क्यों मैं बंधा सा हूँ
कुछ शायद कहूँ
क्यों गूंगा सा हूँ.

कहूँ तो किस से कहूँ
भीड़ में अकेला सा हूँ
मैं चिल्ला के क्यों थकूं 
न होगी कहीं एक भी चूं.

सबके लिए मैं  गूंगा हूँ
पर तुमसे एक बात  कहूँ
मैं शायद ऐसा घुटता हूँ,
के खुदकी मैं ही सुनता हूँ.

Saturday, September 10, 2011

कहाँ देखा?

अक्स के अश्क देख
एक सवाल सा उठा.
न शीशा न आंसू ही
जो देखा, कहाँ देखा?

Friday, September 9, 2011

यूँ न देखें

कल श्याम दफ्तर के बाद
मैं कुछ यूँ आपको मिला के
कुछ पल ग़ौर से देख मुझे
आपकी एक  हँसी छूट गयी.

आपकी हँसी से मेरा ग़ौर टूटा.
शरारती लहज़े से आपने कहा-
"जनाब, कोरे काग़ज़ को यूँ न
देखें, उसी से मुहब्बत हो जाएगी."

आपके आँखों की शरारत आपकी
हँसी के ज़रिए मुझ पर आ छलकी.
ज़ुबां बेसब्र, पल भर भी सोचे बग़ैर 
कुछ इस तरह से जवाब दे बैठी.

"हुज़ूर, काग़ज़ से बस मैंने उसकी,
नज़्म-ए-फरमाइश अभी पूछी ही थी.
पर, सच मानिए, ये सोचा ही  न था,
जवाब में नज़्म, खुद चली आएगी."


Thursday, September 8, 2011

चाँद-ज़मीन

इक नम ज़र्द सा चाँद आज,
आलसी  बादलों से झांकता है.
बारिश अर्से बाद थमी है आज,
देखे ज़मीन क्या कर रही है.

Wednesday, September 7, 2011

काश, के कल छुट्टी होती

कल की सुबह कुछ,
दोपहर से शुरू होती
और, नाश्ते की जगह,
सब्ज़ी, दाल, रोटी होती.
एक किताब और कुछ
ग़ज़लों के साथ हमारी,
श्याम की शुरुआत होती.
दोस्तों के गप्पों के साथ,
प्याली भरके चाय होती.
फिर तैयार हो निकलते,
रात की कहीं दावत होती.
रात को कुछ देर लौट के
फिर रजाई से गुफ्तगू होती.

खैर, ये सब ख़याल भर ही,
काश, के कल छुट्टी होती.


Tuesday, September 6, 2011

सुर सात

एक धुन सुन, थके हारे
से कदम बढ़ चलते हैं.

एक तर्ज़ पर, ग़मगीन
चेहरे मुस्का उठते हैं.

ये  सुर सात कुदरत के,
वक़्त को बदल सकते हैं.

Monday, September 5, 2011

चुप्पी का शोर

एक रोज़ के लिए
आज आवाज़ मेरी,
मुझे छोड़ गयी.

पल भर को रुक
सोचा मैंने, क्या ये
चुप्पी बर्दाश्त होगी.

दिन ढलने को है, जो
बर्दाश्त नहीं होता वो
इस चुप्पी का शोर है.

Sunday, September 4, 2011

फिर भी

मेरे चश्मे का नंबर ज़ीरो है, सिर्फ शौकिया पहनता हूँ.
कुछ बातें ज़रूरी नहीं होती, मगर फिर भी करता हूँ.

Saturday, September 3, 2011

हर गुज़रती श्याम

हर गुज़रती श्याम मैं, एक मिस्रे में लिख लेता हूँ। 
हर श्याम जोड़ के शायद, ज़िन्दगी की ग़ज़ल बने। 

Friday, September 2, 2011

ज़रा जी लूं

इक ज़िन्दा रहना ही क्या ज़रूरी है?
दो साँसों के बीच का एक पल मैं,
ज़िन्दगी से चुरा लाया हूँ आज के-
पूरा टूटके उस पल में ज़रा जी लूं.

सपने की रसोई

हर रोज़ से कुछ अलेहदा आज,
सुबह नींद बड़ी खुश गवार खुली.
चेहरे पर हलकी सी मुस्कान थी,
ज़ुबां पर बचपन के इतवार की
खुशबूदार दोपहर का ज़ायका था.
पिघलती सुबह की नींद की एक 
आखरी जम्हाई लेते याद आया,
रात सपने की रसोई में माँ थी.