Monday, October 31, 2011

जूते- चप्पल

लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं
के मैं जूते क्यों नहीं पहनता.
वैसे इस सवाल का जवाब मैं
जब जैसा सूझे वैसा दे देता हूँ.
पर कभी खुद बैठ के सोचूं
तो कुछ वाजिब नहीं सूझता.

शायद जूते मुझे अपने उस
पुराने स्कूल की याद दिलाते हैं
जो मुझे कभी पसंद नहीं था.
जूते मुझे उस 'खेल-दिवस' के
ज़बरदस्ती की कदम-ताल
और परेड की याद दिलाते हैं.

जूते मुझे उन तंग बंद से
कमरों की तरह लगते हैं
जिनमे न रौशनी है न हवा.
ऐसे कमरे जो रहने वाले को
घोट सिकोड़ के बस अपने
अन्दर जकड़े रखा करते हैं.

जूतों की कड़कड़ाहट के बदले
मेरे लिए तो अपनी मामूली
चप्पलों की चपत ही अच्छी.
बिलकुल खुला, हवादार और
हमेशा रौशन ये कमरा जहाँ
हर वक़्त बेफिक्री की साँसें हैं.

Sunday, October 30, 2011

मेहमां

मेहमां सी बनी आज
एक नज़्म चली आई है.
सोचता हूँ देर तक रोक
उस से कुछ बातें कर लूं.

कहीं बातें मेरी अच्छी लगें
तो क्या पता शायद,
घर पर ही रुक जाये.

Saturday, October 29, 2011

पेन्सिल-कागज़

हाथ सीसे की कालिख लगे
बड़ा लम्बा अर्सा हो चूका
अब बस की-बोर्ड की धूल लगती है.
हथेली पे उस कागज़ की रगड़
के बजाए आज कल बस
मॉनिटर से आँखे चुंधियाती हैं.

आज श्याम मैं घर पर ही हूँ और
इत्तेफाक़न  बिजली भी उड़ गयी है,
मौका है खिड़की के बाजू बैठ
उफ़क़ पे ढलती ज़र्द रौशनी में
बूढ़े पुराने से कागज़ पे अपनी,
भूली सी  पेन्सिल से कुछ लिख लूं.

Friday, October 28, 2011

अपना सा सुकूँ

बहुत थक गया हूँ
बड़ी देर का चला हूँ.
कुछ देर बैठ कहीं
ज़रा सुस्ता लूं, ऐसी
कोई जगह भी तो
आसपास नहीं दिखती.
अगली बार सफ़र पे
निकलने के पहले
अपने घर के पीपल
की छांव का, एक
छोटा सा टुकड़ा
साथ ले चलूँगा, के
बेगानी धुप में भी
अपना सा सुकूँ मिले.
 

Thursday, October 27, 2011

मायने

लफ्ज़ महसूस के मायने
अब और याद नहीं आते
के उसे महसूस किए अब
एक ज़माना गुज़र गया.

उस इक याद के मायने
और भुलाए नहीं जाते
के उसे आके ठहरे अब
एक ज़माना गुज़र गया.

अपनी बेखुदी के मायने 
और समझाए नहीं जाते
के उसे समझना छोड़े अब
एक ज़माना गुज़र गया.

Wednesday, October 26, 2011

रौशन

रौशन सड़कें हैं, रौशन शहर.
रौशन गलियाँ है, रौशन हैं घर.
है सब कुछ रौशन जब
क्यों न एक लौ और लगाएँ.
बहार की रौशनी की तरह
अपने अन्दर एक दीप जलाएँ.

Tuesday, October 25, 2011

डोर का सिरा एक

एक हाथ काती डोर का
सिरा एक मेरे हाथ में है.
कभी खिंची, कभी ढीली
सी महसूस होती है वो.
लगा अगला सिरा छूटा
कभी खुद का फिसला.
डोर वो सीधी रखते रखते
उसमे गाँठें पड़ ही जाती थीं.
एक सुलझाते, दूसरी पड़ती
उसे देखो तो डोर फिसलती.
कभी दोनों सिरे खींचते थे,
कभी डोर ढीली लटकती.
गाँठों को सुलझाते हुए,
और सिरे को सँभालते
मगर अब सोच लिया है
के, डोर ये टूटने न दूँगा.
टूटी डोर जोड़ने में फिर
एक नई गाँठ लग जाएगी.
ये गाँठ, गाँठ ही रहेगी, कभी 
सुलझ, साबुत डोर न हो पाएगी. 


Monday, October 24, 2011

गहने

जाने क्यों गहनों की इतनी चाह है,
सोने-पन्ने पत्थरों के दाम बढ़ गए हैं.
कभी-कभी शर्मा के मुस्कुरा दीजियेगा
इस गहने का दाम भला कौन लगा सके. 

Sunday, October 23, 2011

लफ्ज़

इक खामोश सी  बात,
चीख मुझ से आ बोली ,
और बर्दाश्त नहीं होता
के चुप से मेरे लफ्ज़
अब आवाज़ मांगते हैं.

Saturday, October 22, 2011

चमक

देर एक भीगी रात को
घर पहुँचने की जल्दी में
मैं तेज़ चला जा रहा था
जब सड़क पर एक चमक
देख कर रुक सा गया.
कुछ दूर, ढलान का कन्धा
रुक रुक कर चमकता था.
कुछ देर भले और हो जाए
ये राज़ ज़रूर जानना था.
कदम खुद उस ओर बढ़े
जल्द मैं वहां आ पहुंचा.
उस सड़क पर वहां एक
बड़ा गड्ढा सा था जिसमे
श्याम की बारिश के साथ
धुल छलक के रात का वो
चमकता चाँद उतर आया था.

Friday, October 21, 2011

बेवक्त

रात का ख़्वाब था मगर
वो दिन में चला आया.
संभाल के रखा था के
रात फुरसत में देखूँगा.

उसे पर क्यों जल्दी सी थी
न जाने, बेवक्त ही आ गया.
और किस्सा कुछ यूँ हुआ मैं
दफ्तर में सोते पकड़ा गया.


Thursday, October 20, 2011

चुपके-चुपके

जब कानों में आप चुपके-चुपके से कुछ कहते थे,
हलकी गुदगुदी के साथ नटखट साज़ से बजते थे.

Wednesday, October 19, 2011

कब

पढ़ कर हम आखर चार, सोचे बैठे बहु बड़े बिचार.
पर जो पढ़े वो आखर चार, कब करें उन पर आचार.

Tuesday, October 18, 2011

कौए

My friend Harish loves crows. And I have grown to do so too- not just love but to respect as well. This is for the crows!


एक दोस्त मेरा कौए बड़े पसंद करता है,
अक्सर, उनके बार में लिखा भी करता है। 
वो कहता है, कौए इन्सान से कहीं ज्यादा
खुश और कहीं ज्यादा समझदार भी हैं। 

मुझे तो वो हमेशा भद्दे, बदसूरत,शोर
और गन्दगी फैलाने वाले लगते थे। 
आपस में लड़ते-झगड़ते, छीनते भागते
चालाक, साज़िशी परिंदे जान पड़ते। 

लोग उन्हें ज्यादतन झल्लाए उड़ाते थे,
कोई न चाहता के वो आस पास रहें.
तरह तरह के बहानों की आड़ में इन
कौओं को हमेशा दुत्कार ही मिलती है। 

इतनी दुत्कार की आखिर वजह?
शायद इनकी करतूतों में हमें
अपना ही अक्स नज़र आता है,
वो, जिस से हम सब भागते हैं। 

पर जब कुछ और ध्यान से देखा
तो बुराइयों और दुत्कारों के बावजूद
कौए हमेशा खुश ही दिखे, हमेशा
दिन ढलते ही चैन और सुकून में। 

वो तो शायद इस नफरत से
पूरी तरह से बेखबर रहते हैं। 
उनकी ज़िन्दगी का मकसद है
जीना और पूरी ज़िन्दगी जीना।

पड़ोसियों के साथ अन-बन, लगभग हम जैसी ही;
कुछ भी पाने के मौक़ों की फ़िराक़, हमारी ही तरह;
पर एक पर भी गर मुसीबत टूटे, तमाशा न देखते
पूरा झुंड एक हो जाता है मदद में, हमारी तरह नहीं।

हम इन्सान हैं और वो सिर्फ मामूली परिंदे,
हमारी ऊँची समझ, उनकी सिर्फ जीने की समझ। 
सब देख-सोच अपने दोस्त की बात सही लगी-
वो परिंदे हैं और हम सिर्फ मामूली इन्सान। 


Monday, October 17, 2011

रंग कौनसा?

कोई पूछे जब के रंग
कौनसा सबसे पसंद है,
तो अक्सर में जवाब
अलग-अलग दे देता हूँ.

पर कभी गर खुद मैं
अकेले बैठ ये सवाल
खुद ही से पूछूं तो, मुझे 
कोई जवाब नहीं सूझता.

कहा-सुना

न कहते कहते कुछ कहते हैं वो,
फिर बाद में कहते हैं, कुछ न कहा.
वो न सुनते सुनते सब सुनते हैं,
फिर क्यों कहते हैं, कुछ न सुना.

Sunday, October 16, 2011

आईना

गिलास कुल्लड़ या मटका
सुराही चुल्लू हो चाहे लोटा.
जो भी उसको मायना दे
बस बूँद भर पानी इन्सान
की मजबूरी का आईना है.

Friday, October 14, 2011

नंबर

बचपन में जब पहाड़े रटने होते थे
तब जी भर के नंबरों को कोसते थे.
बड़ा हो अब जब ज़िन्दगी बनानी है,
हर तरह के नंबरों का पीछा करते हैं.

पड़ाव

कुछ आखिरी थके कदम बाकी हैं
चमकीले मंज़र तक पहुँचने मैं
जहाँ से मंजिल दिखने लगती है.
पहुँच जाऊं तो ज़रा दम भरूं के
मंजिल सिर्फ़ दिखी है, मिली नहीं.


Wednesday, October 12, 2011

खौफ

हर पल पन्नों सा पलट रहा है,
पन्ने मगर पूरे पढ़ न पाता हूँ.
खौफ सा बैठ गया है के कहीं,
किताब आधी-पढ़ी न बंद हो जाए.

Tuesday, October 11, 2011

ज़रा

एहसान मांगती हैं मेरा
मुझसे ये दो आँखें मेरी.
अरसा हुआ ख़्वाब देखे,
बस ज़रा सा हमें सोने दो.

Monday, October 10, 2011

नायाब

नायाब थी वो घड़ी.
वो नहीं जो पहन रखी थी.
वो, जो साथ बिताई थी.

Sunday, October 9, 2011

झपक

काली धारदार भौंहें,
तीखी कांपती पलकें,
अक्सर छुपा लेती हैं
वो गहरी भूरी आँखें.

जब खुलें वो सुबह रौशन.
जब मिचीं तो सोती रात. 

Saturday, October 8, 2011

आइएगा

हलकी आहट सी करके, पहलु में चले आइएगा.
कानों में शरारत से, आहिस्ता कुछ फ़र्माइएगा.
इस से पहले में समझूं, कान खींच चले जाइएगा.
भले जाइएगा मगर लौट यूँ ही फिर आइएगा.

Friday, October 7, 2011

नया ख्व़ाब

रोज़ के बासी ख़्वाबों के बजाय
कल एक नया ख्व़ाब देखा है.
खुद को किताब लिए झूले पर
और ख़त्म सारे काम-काज देखा है.

Thursday, October 6, 2011

"मैं सुरमई"

सोचता था जो करुं न करुं
वो आज आखिर कर गुज़रा.
आगे  मोड़ पर  जो रहती थी
उसके घर के सामने जा उतरा.

सायकल दिवार पर सटाके
दरवाज़े पर दो दस्तक दे दी.
किवाड़ खोल अम्मा ने पुछा-
"क्यों, क्या बात है जी?"

सकपका के देखता रहा,
आवाज़ कोई निकली नहीं.
बस दुआ की, वो कहीं से
निकल आ जाये यहीं.

अम्मा चिड़ के फिर बोली-
"अरे कुछ कहो तो सही?"
कुछ कहता, इस से पहले,
सामने आ खड़ी थी वही.

अब अम्मा कहाँ सुनाई दे
हम खड़े बस देखते रहे.
ज़रा देख मुझे उसने कहा-
"अम्मा, ये दोस्त हैं मेरे."

न कभी बात न मुलाक़ात
बस आते जाते दीखते थे.
इतने में ही दोस्ती हुई तो
देखें किस्मत में क्या आगे.

अम्मा मूंह सिकोड़े गई भीतर,
हिचकती मुस्काती वो आगे आ गई.
इस से पहले के मैं नाम पूछता,
उसने खुद कह दिया, "हाई, मैं सुरमई."


फ़िराक

सबको फ़िक्र फ़िराकों की है
उन्ही की फ़िराक में भागते हैं
के ज़िन्दगी निकल न जाए
उन्हें हासिल करने से पहले.

Tuesday, October 4, 2011

खुशबू

कुर्सी पे आधे लेटे लेटे
आँखे हलकी सी मूंदे
वो खुशबू कहाँ की है
आखिर, सोच रहा था.
साँसे और गहरी भरते
आँखें अलसाते खोली.
बचपन की डाइरी के
पन्नों से हवा होकर
मुझपर गुज़र रही थी.
वो पन्ने पलट रहे थे,
खुशबू बचपन की थी.

Monday, October 3, 2011

मज़ा

सब जान अनजान बने रहे
इसमें जो मज़ा है, क्या कहें?

चाँद नगीना

आसमां सजा हुआ निकला है
तारों जड़े काले सूट में आज.
अंगूठी में चाँद नगीना  है
रात उसकी की सगाई है आज. 

Saturday, October 1, 2011

अकेला

दिन भर दफ्तरी बन, श्याम दोस्तों संग ज़रा बातें हो जातीं हैं.
रात घर लौटते मगर सिर्फ किताबें हैं जो राह ताकते रहती हैं.
उनसे गुफ्तगू मगर एक तरफ़ा ही होती है- वो बोलें मैं सुनता हूँ.
अकेला आदमी हूँ, कभी यूँ भी लगता है के मैं कहूँ कोई और सुने.