Saturday, December 31, 2011

पता न चला

जो गुज़रा, ज्यों गुज़रा, कब गुज़रा
वो वक़्त ही था, सो पता न चला.
चंद लम्हे यहाँ-वहाँ कुछ ठहरे हैं,
बाकी वक़्त था, तो पता न चला.
उन लम्हों को संभाल कहीं रखा था,
वो उस वक़्त था, अब पता न चला.
एक-एक आज ढूँढा सो मिल रहे हैं,
यूँ गुज़रा वक़्त है, कब पता न चला.

Friday, December 30, 2011

दरख़्त पुराना

इक दरख़्त पुराना हूँ
मेरे पत्ते भी बूढ़े से हैं.
कड़ी धुप में खड़ा हूँ,
मेरी छाओं में लोग,
मगर अब भी बैठते हैं.

Thursday, December 29, 2011

साँस ज़िन्दगी की

ज़िन्दगी ने अपने लिए
एक कोना ढूँढ लिया था
उस अँधेरे से कमरे में.
मुझे पता चला जब तो
मैं भी दीवारों के साथ 
अँधेरे में थप-थपाते हुए
वो कोना खोजने लगा.
श्याम होने को आई है
कमरे के चौथे कोने की
तरफ बढ़ते बढ़ते मुझे
रौशनी की भीनी सी
खुशबू के साथ, मद्धम
हवा की सरसराहट में
एक पत्ता हाथों को
हलके से छूंके उड़ गया.

अर्से बाद बंद कमरे की
घुटन छोड़, आज एक
लम्बी साँस ज़िन्दगी की.


Wednesday, December 28, 2011

देखता हूँ

इस किनारे पे खड़ा  मैं,
बस उस पार देखता हूँ.
पार किनारा दीखता नहीं,
बस मझधार देखता हूँ.
बस उतर पड़ा हूँ भंवर में,
पहुँच मझधार देखता हूँ.
आगे अब क्या होगा जाने
जो होगा चलो, देखता हूँ.

Tuesday, December 27, 2011

वक़्त बूढ़ा

बूढ़े होते वक़्त ने आख़िर
आज कलम खुद उठा ली है.
जो दास्तानें इन्सां लिखता था,
वो वक़्त अब खुद ही लिखेगा.
"आख़िर इन्सां का क्या भरोसा",
 वक़्त खाँसते हुए कहता है,
"वो दास्ताँ नहीं, सिर्फ अपनी
सहूलियत ही लिखता है."

Monday, December 26, 2011

पैमाना

ज़िन्दगी डूबती गयी मय में कतरा-कतरा,
इतना के वो बेहोश ही होश में होता है.
कोई टोके तो रूखी हँसी में जवाब देता है-
"अब क्या टोकते हो यारों, ये घूँट-घूँट भरता
पैमाना अब बस छलकने को ही है."

Sunday, December 25, 2011

अपना घर, अपना शहर

माँ-बाप के पैर छूँ निकला,
यहाँ सबको नमस्ते कह रहा हूँ.
अपने घर से आज मैं,
अपने शहर को लौट आया हूँ.


Saturday, December 24, 2011

घर

अपने घर से बाहर रहते
अब दस साल हो गए हैं.
साल में लगभग दो बार
हफ्ते दस दिन घूम आता हूँ.
हर बार मगर आखरी दिन
घर से जाने का मन नहीं करता.

Friday, December 23, 2011

ठंड

ये गुज़रती खुश्क सी श्याम
चाँद से ठंड बटोरके लाई है.
जाते-जाते कान में कहती है
"चाय पी लो, ज़रा गर्म हो जाओगे."

Thursday, December 22, 2011

बेतुका सा पन्ना

मैं आज-कल जहाँ रहा करता हूँ,
उस एक कमरे को मैं घर कहता हूँ.
दो दरवाज़े हैं, दो खिड़कियाँ भी
और सीढ़ियाँ जो छत को जाती हैं.
एक गुसलखाना है जो बरसात में
टपकता है, सो सफाई का पानी अक्सर
उन दिनों खुद ही भर जाया करता है.
एक चटाई पे गद्दा मेरा बिस्तर है
जो ढेरों किताबों और कुछ कपड़ों से
हमेशा ही घिरा रहता है.
उस ढेर में मेरी एक डाइरी भी है जिस में
मैं अपने बेतुके ख़याल लिखा करता हूँ.
सो जो आप अभी पढ़ रहे हैं वो भी
उसी देरी का एक बेतुका सा पन्ना है.
अब भले अपने कमरे पे कोई लिखता है,
मैंने भी खैर इसलिए लिखा है क्यों कि-
यूँ लिखना बिलकुल बेतुका होता है.

Tuesday, December 20, 2011

पुरानी क़िताब

पुरानी उस किताब पर  
जमी धुल की परतों से 
माज़ी की महक आती है। 

उँगलियों से पन्ने पलटते
ज़बान पे गुज़रे वक़्त का
हल्का ज़ायका आता है। 

सफहों की फड़-फड़ाती 
आवाज़ में, पुराने घर का
आँगन सुनाई देता है। 

फीके लाल सूती कपड़े के 
हार्ड-बाउंड कवर में उसकी,
उम्र का एहसास होता है। 

ज़र्द पड़े पन्नों पे उभरी  
काली सियाही की छाप
पर और जवाँ लगती है। 

एक अरसे बाद आज मैंने
क़िताब उठाई है, अब और
रखने का मन नहीं होता है। 

Monday, December 19, 2011

ग़लत वक़्त

मुझे आज फिर ग़लत वक़्त पे नींद आ रही है,
सोचता हूँ सो ही जाऊं के रात का इंतज़ार करूँ.

Sunday, December 18, 2011

कश

इक काश का कश लगाके बैठा हूँ,
उड़ते धूंए में मुम्किनात ढूँढने को.

Saturday, December 17, 2011

भूगोल

बात शायद मेरी पाँचवी जमात की है
मैं भूगोल में कमज़ोर हुआ करता था.
अमरीका के ऊँचे बर्फीले पहाड़ मैं,
रूस के मैदान में बताया करता था.

ये कभी मेरी समझ में नहीं आता था,
ये क्यों नदी और वो क्यों नाला था.
मैं अक्सर सोच में पड़ जाता था,
कहीं बाढ़, कहीं जल सूखके काला था.

बचपन में दादी-नानी कहतीं थीं,
ये भू गोल भगवान् ने बनाया है.
अब मैं सोचता हूँ के ये भूगोल क्या,
भगवान् को किस ने पढ़ाया है?

क़त्ल

इक क़त्ल हो गया है कल रात,
लाश सुबह नुक्कड़ पर मिली है।
ख़्वाब एक नई आँखें ढूंढ रहा था,
चंद सच्चाइओं ने उसे मार डाला। 

Friday, December 16, 2011

ज़िन्दा

आज मैं कहता हूँ, कभी अपने मन की कहा करता था.
चला करता हूँ, कभी मैं अपने कदम चला करता था.
काम करता हूँ, कभी अपने मर्ज़ी की किया करता था.
सबकी सुनता हूँ, कभी अपनी भी सुन लिया करता था.

थक गया हूँ, साँस कभी खुद के लिए लिया करता था.
आज मैं ज़िन्दा ज़रूर हूँ, पर कभी मैं जिया करता था.

पल भर

लोग 'पल भर' की बात कहते हैं,
मैं भी एक पल हाथों में लिए हूँ.
पिछले कुछ पलों से सोच रहा हूँ,
खली ये पल मैं किस तरह भरूँ.

छतरी भर छाँओं

क्यों इस तरह गुस्से में, अलग धुप में चलते हो,
मैं छतरी भर छाँओं  लाया हूँ, उसका क्या होगा?

Thursday, December 15, 2011

हसरत

बड़ी पुरानी एक हसरत आज
कुछ हरकत पे उतर आई है.
जाके ज़रा माँ से कहूँ-
"कान मरोड़ के थोड़ा डाँट दे."

बात का स्वाद

इक बात का टुकडा चखके, आपने तश्तरी पे रख छोड़ी थी.
देख के मैंने भी ज़रा चखी, तो जाना यूँ क्यों छोड़ रखी थी.
वो बात ठीक से पकी नहीं थी, उसे ज़रा सी और आँच दें.
मैं चंद लफ्ज़ निकालूं, थोड़े आप डालो तो बात का स्वाद बढ़े.

Wednesday, December 14, 2011

वक़्त

पथरीले वक़्त से टूट टूट के
लम्हों की रेत बिखर रही है.

चाहे जितनी कोशिश कर लें
मुट्ठी में रेत पर, नहीं रूकती.

बस चंद कतरे कभी कभी
हथेली पे चिपक से जाते हैं.

इन यादों के कतरों को मैं
सहेज, जोड़ लिया करता हूँ.

कतरा कतरा जुड़ एक दिन
शायद वो एक वक़्त बन जाएँ.

मेरा चाँद

"अमा! चाँद पे आधी दुनिया लिखती है,
तुम क्या ऐसा अलग लिख लोगे उस पे?"

अब वही पुराना या कुछ अलेहदा लिखूं,
मेरा चाँद मुझे रोज़ अलग ही देखता है.

रुख्सत

चाहते नहीं हैं हम के वास्ता रखें
कोई उनके रुख्सत के रास्ते से.
वो ग़र खुद ही इजाज़त माँगें तो,
कैसे रोकें उन्हें हमें छोड़ जाने से?

Tuesday, December 13, 2011

खामख्वा की कट्टीयाँ

हल्की छेड़ छाड़  का जो कभी मन करे,
तो पहले ज़रा रुक सोच लेता हूँ,
और कभी गर यूँ ही कुछ कह दिया,
तो अचानक रुक फिर सोचने लगता हूँ,
के ये सुन वो मुझपर मेहेरबां होकर, 
कहीं दे न दें कुछ खामख्वा की कट्टीयाँ !


Wednesday, December 7, 2011

नज़्में

अर्से से एक कहानी है मन में
रोज़ सोचता हूँ, आज लिख लूं.
पर नज़्मों में कुछ बात है जो,
हमेशा मेरा मन रिझा लेती हैं. 

थमी साँस

एक अंग्रेजी फिल्म की लाइन थी-

"ज़िन्दगी, आपने कितनी साँस ली
उस से नहीं गिनी जाती, बल्कि
उन लम्हों से जिन में आपकी साँसे,
खुद थम जाएँ."

कल श्याम कुछ ऐसा ही देखा मैंने.
हरे लॉन मैं कई सौ खुश चेहरे,
दोस्तों के और उनके परिवारों के
और इन सब के बीच, हमारे
पडोसी मुल्क से आए मेहमां-
नन्हे-नन्हे लाखों परिंदे जो
ढलते सूरज को बिदाई देते हुए
एक साथ पेड़ों से उठ उड़ पड़े.
यूँ लगा जैसे एक बड़े बादल के
सैकड़ों पर निकल आए हों और
वो उड़के उन हसते चेहरों के साथ
उनकी खुशियाँ बाँटने आया हो.
क्या पता किसी और ने भी कुछ
ऐसा महसूस किया या नहीं, पर
उस पल, पल भर के लिए,
मेरी साँस थम सी गयी और मुझे
उन परिंदों के चेहरे हसते हुए और
वो हसते चेहरे चहचहाते नज़र आए.




Monday, December 5, 2011

घर वाली गाड़ी

मूंग-तुअर की दल में
माँ की डांट का तड़का,
गर्म गोल फुल्कों पर
बहन के तानों की सेंक.
सब्ज़ियों की भाजी में
बाबा के मज़ाक का स्वाद.
और गिलास भर पानी संग
भाई की शांत मुस्कुराहट.
बस कुछ और घंटे बचे हैं
घर वाली गाड़ी पकड़ने में.

Sunday, December 4, 2011

सारा आसमां

खुले मैदान मैं
हाथ ऊपर उठाए,
खड़े हो जाओ
तो लगता है के,
आसमां सारा
उठा लिया है
अपने हाथों में.
सो, जब भी कभी
ज़िन्दगी बोझ सी
लगने लगती है,
तो चला जाता हूँ
खुले मैदान में, के
अपने हाथों में
कुछ देर,
सारा आसमां उठा लूँ.

Saturday, December 3, 2011

चंद लम्हे

मटकी भर वक़्त लिए अपना
आप आज दूर जाने वाले हो.
चंद लम्हे जो छलके-टपके हैं ,
मैं ज़रा उन्हें बटोर लेता हूँ.

डिबिया

चमकीली पन्नी में लिपटी इक डिबिया
आज सुबह मेरी मेज़ पर रखी हुई मिली.
किसने रखी सोचते हुए डिबिया को खोला,
अन्दर आपके लिखे  पर्चे ने कहा "ख़ुशी!".

Thursday, December 1, 2011

गुज़रा वक़्त

वक़्त आज का अक्सर, गुज़र जाने के बाद अच्छा लगता है.
जैसे अपना बचपन हमें, अपनी जवानी में अच्छा लगता है.