Wednesday, October 31, 2012

पैग़ाम

आँखों से पैग़ाम लिखा करती थी
काजल की स्याही में नज़र डुबोके।


पलकें झपक के वो भेज देती थी
बिना पतों के वो पैगाम- क्या जाने
किसे मिले वो, कौन उन्हें पढ़ता हो।
अपना पता नहीं लिखती थी मगर,
जवाब का इंतज़ार ज़रूर करती थी।


आँखों से पैग़ाम लिखा करती थी
काजल की स्याही में नज़र डुबोके।


नेरुदा की इक नज़्म पर ग़ौर करते
बुकस्टोर के इक कोने में बैठा, यूँ ही  
दो बच्चियों को सुन रहा था बात करते
ऑस्टेन और ‘यू’एव गोट मैल’ पर जब,
ग़ालिबन दिल पर दस्तक हुई; मैंने देखा


आँखों से पैग़ाम लिख भेजा था इक उसने काजल की स्याही में अपनी नज़र डुबोके।



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