Saturday, January 14, 2012

आज़ाद

खुले नीले आसमान को
आँखों में भरके आज मैं
रात देखूंगा सोते सोते
उड़ते आज़ाद ख्वाब मैं.

Thursday, January 12, 2012

दुःख भूल

घर दुआर फाटक बहिर, खीलत कदम्ब के फूल,
फूल के फल कागा चुगे, बैठ छाओं दुःख भूल.

Wednesday, January 11, 2012

साथ

कल बैठे सोच रहा था वो बात
जो आपने जाते-जाते कही थी.
आख़िर क्यों रहें हम साथ,
बात तो दोनों को लगी सही थी.

Tuesday, January 10, 2012

इंतज़ार

वो कल की बात और थी, जब नुक्कड़ पे इंतज़ार होता था.
अब गर होता भी है तो, इंतज़ार स्क्रीन और कीज़ पे होता है.

Monday, January 9, 2012

इतवारी चम्मच

ड्राइंग रूम के सोफे पे बैठ
अखबार से नज़र चुराते
मैं उन्हें अब तब देख रहा था।
वैसे रसोई का काम हम
साथ ही किया करते हैं,
पर इतवार के दिन रसोई
मेरे लिए बंद होती है।
तब खड़े वो प्लेटफ़ॉर्म पे
परात रखे, आटा गूंद रही थीं.
लम्बे, घने, हलके घुंगराले बाल
जिन्हें वो अक्सर बाँधे रखती हैं,
तब खुले थे।
कुछ घंटा भर हुआ होगा,
वो नहा के निकली थीं,
बाल भी सूखे नहीं थे।
यूँ तो घर पर वो
ट्राउज़र और कमीज़ में होती हैं,
उस रोज़ मगर,
वो ग्रे बोर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी,
जो मेरी सालगिरह पे पहन,
उन्होंने मुझे तोहफे में दिया था।
नम खुले बालों को कान के पीछे
दबा कर काम कर रहीं थीं,
पर कमबख्त एक लट बार-बार
छूट के आँखों के सामने झूल जाती।
आटे सने हाथों की कलाइयों से
बार-बार नाकाम कोशिश कर रहीं थीं।
चिड़ती आँखे लट को अनदेखा कर,
काम में ध्यान लगाने की कोशिश
करें तो आखिर कैसे करें-
लट कमबख्त तो मानती ही न थी।
संवारते-संवारते आटा थोड़ा गाल पे
और कुछ ज़रा नाक पे जा लगा था।
उस ओर देखने से मैं
खुद को रोक नहीं पाता था।
चिड़ते झल्लाते मेरी ओर देखा-

"अरे कुछ करो न,
क्या बैठे मुस्कुराए जा रहे हो!"

अखबार रख अपनी हँसी दबाए
मैं रसोई में चला गया।
उनके पीछे खड़े हो
धीरे से उस नटखट लट को
 उनकी घनी, थोड़ी सी भीगी
ज़ुल्फों से ला मिलाया।
वो नर्म, नम ज़ुल्फें उँगलियों में
रेशम की तारों सी लगती थीं
जिन से मंद-मंद
इतवारी सुबह की खुशबु आ रही थी।
उनका ध्यान आटे पे था और मैं
इसी बहाने उनकी ज़ुल्फों को सहलाते
अपनी उँगलियों से गुज़ार रहा था।

"अरे क्या कर रहे हो,
देखो मेरा पल्लू भीग रहा है,
ज़रा जूड़ा बना दो न।"

उन्हें छूते ही जैसे मेरा हर काम
खुदबखुद हौले हो गया था।
धीरे से उन्हें रेशा रेशा बटोरा,
वो इतनी घनी हैं के
मेरी दोनों हथेलियाँ लगीं उन्हें
साथ थामे रखने में,
जाने वो अकेले कैसे संभालती थीं।
जैसे तैसे मैंने घुमाकर
एक कुछ टेढ़ा सा जूड़ा बना ही लिया।
जब कुछ मिला नहीं तो
पास पड़ा एक चम्मच उसमे खोंच दिया।
आटा गुंद चूका था और परात लिए
चूल्हे के सामने जब वो गयीं
तो सामने थाली में खुद को देख
ज़ोर से हसने लगीं।
अपने हाथ धोये और
मेरे पीछे से आकर
अपने गीले हाथ
मेरी दाढ़ी पे फेरते कहा-

"मेरे इतवारी चम्मच,
अब रोज़ जूड़ा तुम ही बनाना!"

धर्म

एक सवाल बचपन का था
जो अब तक लाजवाब है.
ये 'धर्म' आखिर क्या होता है,
क्या इसका भी कोई जवाब है?

ज़ख्म

ज़रा सा झल्ला कर
कुछ तैश में आकर
वो तकिया जो आपने
मुझ पर मारा है,
ज़ख्म सा हो गया है
हल्का सा दिल पर.
नज़र भर प्यार से बस
देख लीजिए इस तरफ,
भर जाएगा.

Friday, January 6, 2012

आओगे

गुज़री है श्याम लिखते लिखते, रात भी बैठ लिखूंगा.
सुबह जो आप आओगे, नज़र आपके ये नज़्म कर दूंगा.

Thursday, January 5, 2012

बुत

बुत बना रखा है एक
बगीचे की मिट्टी से.
रोज़ पानी डालता हूँ
के एक हँसी खिल जाए.

खिड़कियाँ

चेहरे अनजाने कुछ
काँच की खिड़कियों से
रुक-रुक के झाँकते हैं.
वो खिड़कियाँ जो मेरे
ज़हन के कमरों में
अक्सर बंद रहा करतीं थीं.
जाने क्यों आज कल उनके
फाटक बिन आहट, बिना
किसी हवा ही के बगैर
खुदबखुद  खटखटाते हैं.
जब चिटकनी कसने जाता हूँ
तो कोई नज़र नहीं आता है
कभी-कभी लेकिन
एक साया सा झाँक जाता है
उन्हीं अनजाने चेहरों का
और कसी चिटकनी के बावजूद
 खिड़कियों के फाटक बिना
आहट बिन हवा के किसी
फिर खुदबखुद ही
खटखटाने लगते हैं.

Tuesday, January 3, 2012

ग्रंथों में बंद

खुदा, भगवन, रब्बा, इश्वर
इन सब को हम पहचानते हैं.
दिल में हमारे हो न हों, इन्हें
ग्रंथों में बंद कर, हम सब जानते हैं.

सुफैदपोश

रात फिर कटी थी जागते,
टूटे पल गिन रहा था.
क्या सत, असत क्या सोच,
गुज़रे कल गिन रहा था.
थक सा गया था, हलकी
झपकी आ ही रही थी.
दरवाज़े पर लगातार दस्तक
पर, सुनाई पड़ सी रही थी.
उठा कोसते, जोड़े कड़काते
देखूं आखिर कौन अड़ा है.
चिटकनी खोल देखा, काला
सच सुफैदपोश खड़ा है.

Sunday, January 1, 2012

नया मैं

आईने के सामने खड़ा मैं
अपना पुराना अक्स देखता हूँ.
उस पुराने अक्स में छुपा
एक नया मैं ढूँढता हूँ.