Wednesday, October 31, 2012

पैग़ाम

आँखों से पैग़ाम लिखा करती थी
काजल की स्याही में नज़र डुबोके।


पलकें झपक के वो भेज देती थी
बिना पतों के वो पैगाम- क्या जाने
किसे मिले वो, कौन उन्हें पढ़ता हो।
अपना पता नहीं लिखती थी मगर,
जवाब का इंतज़ार ज़रूर करती थी।


आँखों से पैग़ाम लिखा करती थी
काजल की स्याही में नज़र डुबोके।


नेरुदा की इक नज़्म पर ग़ौर करते
बुकस्टोर के इक कोने में बैठा, यूँ ही  
दो बच्चियों को सुन रहा था बात करते
ऑस्टेन और ‘यू’एव गोट मैल’ पर जब,
ग़ालिबन दिल पर दस्तक हुई; मैंने देखा


आँखों से पैग़ाम लिख भेजा था इक उसने काजल की स्याही में अपनी नज़र डुबोके।



Friday, October 26, 2012

शिकायत

रात फिर जागते कट रही थी,
किताबें भी मुझसे ऊब चुकीं थी,
कलम मेज़ पर सुस्ता रही थी,
बालकनी के खुले दरवाज़े से 
चाँदनी झिझकती झाँक रही थी।
कुर्सी ज़रा पीछे खुकाए बहार देखा  
चाँद मूंह सिकोड़े पीला पड़ा हुआ था।
"क्यूँ  ऐसे जागते रहते हो, तुम्हे यूँ 
देख रात मुझे बुरे सपने आते हैं।"

Thursday, October 25, 2012

इन्तेहा

एक कंकड़ उछाल फेंका है सोच
चोट इन्तेहा को जा लगेगी।
वो वापस लौट मेरे माथे को लगा
देखा इन्तेहा वहाँ मुस्काने लगी।

Tuesday, October 16, 2012

बित्ता-बित्ता

हर अमावास से अमावास तक,
वो बैठा रात की चादर काढ़ता है।
तारों के छींटों के आगे हर रोज़,
बित्ता-बित्ता भर पूरा चाँद काढ़ता  है।