Sunday, November 25, 2012

पैदल राहें

पहियों तले रास्ते
अक्सर भागते फिसलते हैं,
बस धुंदली लकीरें दिखती हैं।

पैदल मगर,
रास्ते अपना नाम बता
हमारे साथ चल पड़ते हैं।

रास्तों से पहचान हो जाती है।


रास्कल

वो आई नहीं अब तक,
बात जाने की कर रही है।
मैं इंतज़ार मैं बैठा,
उसके मेसज पढ़ रहा हूँ।

"बड़ी देर हो गई न?"

"कब से बैठे हो?"

"बस रस्ते में हूँ"

"क्या करूँ, उलझन थी,
कौन सी साढ़ी पहनूँ ?"

"हरी और बसंती
वाली पहनी है आखिर।"

"तुम्हे अच्छी लगेगी न?"

"6 बजे जाना है,
माँ घर पर हैं आज।"

"देर हुई तो शक करेंगी!"

"हमें आज चिक्की बनानी है।"

"कल खिलाऊँगी, मेरे
हाथ का बना पहली बार चखोगे।"

"रास्कल, दीवार पर बैठे हो,
मैं साढ़ी में कैसे बैठूंगी ?"

हसते-हसते दीवार से उतरा,
घड़ी 6 से कुछ 5 मिनट पीछे थी।
साढ़ी में संजीदा लगती थी,
पर ज्यों मुस्कुराती,
संजीदगी शरारत बन जाती थी।
उसकी वो बदमाश शर्म,
बड़ी नायाब थी।

मुझे आता देख, वहीं
लॉन पर बैठ गई।
लगा, हरी घाँस के बीच,
बसंती फूल खिल गया हो।
मेरे बैठते ही मेरा हाथ
कसके थाम लिया।
मेरी उँगलियों पे
अपनी उँगलियाँ फेरते कहा-

"रास्कल!
 चलो मुझे अब घर छोड़ आओ।"

सुबह से नींद


मेरी आँखों में सुबह से नींद है.
कल रात जो वो रास्ता भूली,
आज जाके अपने पते पहुंची है.
अब ऐसी बेवक्त मेहमान ये,
न रोकी जाती न छोड़ी ही.
इस बार,
हाथ उसके टाइम टेबल थमा दूंगा.
इस उम्मीद से,
की फिर कभी न कहना पड़े,
मेरी आँखों में सुबह से नींद है.

ख्वाब का पेड़

रात एक बार इक ख्वाब से गुज़रते 
मैदान में उस ख्वाब का बीज बोया था।
अगली कई रातों तक ख्वाब बरसते रहे,
आज यूँ ही टहलते-टहलते मैदान में 
इक नया पेड़ दिखा, जिसे पहले न देखा था।
सोचा दम भर इस नई छाँव में बैठ फिर 
घर की ओर मुड़ जाऊंगा।
कब आँख लगी, पता ही न चला।

ख्वाब में देखा मेरे बीज का पेड़ बन गया है,
और उसकी छाँव में लेटे,
मैं फिर ख्वाब देख रहा हूँ। 

Monday, November 5, 2012

अलार्म

कल रात ख्वाब देखते देखते
अचानक छींक आ गई,
ख्याल चन्द उस ख्वाब के
अँधेरे में बिखर गए।
वो कुछ सुहाना सा
जान पड़ा था ख्वाब,
सो इक मोम बत्ती लिए
अँधेरे टटोलने निकल पड़ा।
ज्यूं ज्यूं टुकड़े मिलते गए,
ख्वाब मैं अपना जोड़ता गया।
आखरी टुकड़ा बस जोड़ा ही था,
कबख्त!
सुबह छः बजे का अलार्म बज गया।
नींद चौंक कुछ यूँ खुली के
रात भर बटोरा ख्वाब वो
फिर टूटके बिखर गया।