Wednesday, August 28, 2013

शरीर

टुकड़ा टुकड़ा ढून्ढ कर बटोरा है ख़ुद को 
आखिरी एक टुकड़ा मगर मिलता ही नहीं 

बड़ी शरीर हो, कहीं तुमने तो नहीं छुपा दिया?

Tuesday, August 20, 2013

लकीरें

चंद लकीरें खेंची थीं ये सोचकर
तुम्हारी तस्वीर बनाऊंगा आज 

तस्वीर तो बनी नहीं, नज़्म लिख गई।  

Thursday, August 15, 2013

फ़िल्म

हाथ कुछ यूँ पकड़ रखा था मेरा
जैसे, बस छोड़ ही जाउँगा तुम्हे

डरो मत, बस फ़िल्म ही तो है। 

Wednesday, August 14, 2013

कार्ड

पलटते ज़र्द से पन्नों से आज
इक पुरानी नज़्म गिर गई है

कार्ड था तुम्हारा, मेरा बुकमार्क। 

Tuesday, August 13, 2013

ख़त

इतवार की दोपहर में
बेवक्त चाय का ज़ायका

माज़ी से ख़त आया है आज। 

Monday, August 12, 2013

शक़

आँखों ने शक़ से देखा था
के कौन आई है मेरे साथ

पाज़ेब हैं, ज़रा पहनो तो। 

Sunday, August 11, 2013

छाता

सीली दीवार पे लटकता
भीगी खिड़की का टुकड़ा 

छाता रख लो, बरसात है। 

Hanging upon a damp wall,
A piece of a soaked window,

Keep an umbrella, its rainy.

Saturday, August 10, 2013

शायद

बदली सी ज़ुल्फें
झलक भर गाल,

यूँ मुस्कुराई थी!

Black cloud like hair,
Glimpse, of a dimple,

How you had smiled! 

Saturday, August 3, 2013

मोमबत्तियाँ

अँधेरा पसन्द नहीं था ज़रा भी,
मगर अक्सर
बुझा दिया करती थी घर की बत्तियाँ ।
एक एक कर हर कमरे में फिर
जलाया करती थी छोटी बड़ी मोमबत्तियाँ ।
बड़ा शौक़ था मोमबत्तियों का-
कहती थी उनकी लौ दिल सी धड़कती है, ज़िन्दा है
उन बिजली के ठंडे लाटुओं सी बेजान नहीं।

अपनी ज़िन्दा रौशनियों सी घिरी
आईने के सामने अपने बाल बनाया करती थी।
मैं अक्सर छुप छुप के देखा करता था,
तस्वीरें उतारा करता था।
साँझ सी घुलती रौशनी में
पूरा चाँद जैसे बरसाती घटाओं को
अपनी उँगलियों से तार कर रहा हो।

मेज़ की मोमबत्तियों की मद्धम लौ में
फर्श पे कोहनियों के बल लेटे,
अपनी किताबें गुनगुनाया करती थी।
मैं हमेशा टोकता-
'यूँ पढ़ोगी तो चश्मे चढ़ जाएँगे !'
सुनकर मेरा  चश्मा नाक पर ताने
मुझ पर जीभ चिढ़ाया करती थी।

छुट्टी के रोज़ कभी
हॉल का फ़र्नीचर हटा
कुकर की सीटियों के बीच मुझे
सालसा सिखाने की कोशिश करती।
चिड़कर फिर मेरे अनाड़ीपन से
ग़ुस्से से कुछ मोमबत्तियाँ
बुझा दिया करती।

मोमबत्तियाँ वो सारी अब
सिर्फ तस्वीरों में ही रौशन हैं-
दीवारों पर, मेज़ों पर,
खिड़कियों की चौखट पर,
दराज़ों, क़िताबों में
मेरे बटुए में।
कभी खाली हॉल में सालसा
कभी मेरे चश्मे में शरारत
कभी क़िताबों में नज़्में
तो कभी आईने के चेहरे
अब भी यादों में
टिमटिमा से जाते हैं।

तनहा से इस घर में
अब बिजली ही रौशन होती है
बेजान डंडे लाटुओं में।
मोमबत्तियों में यादें कहीं
पिघल के धुआँ न हो जाएँ।