Monday, November 25, 2013

चुप्पी

पन्ने ज़र्द पड़ गए हैं इंतज़ार में
लिखे न सही कुछ गोद ही दे कोई

भले डाँटो, पर कुछ कहो तो सही।  

Sunday, November 24, 2013

ख़ास

कुछ कहूँ भी तो, काग़ज़ सब अनसुना किए देता है
क़लम भी इसी वक़्त है बेज़ुबां, कुछ कहती ही नहीं

अब मान भी जाओ, देखो मैंने ख़ास चाय बनाई है।

Even if I say something the paper just ignores them all,
The pen too has lost its tongue at the moment, is silent,

Come on now please, see I have made you special tea.

Thursday, November 21, 2013

ज़िक्र

ज़िक्र से यादें ताज़ा होतीं हैं कभी
कभी यादों से ज़िक्र छिड़ जाते हैं 

कल तुम्हारी बात, आज मुलाक़ात। 

Wednesday, November 20, 2013

मुक़ाम

मुक़ाम मुक़म्मिल से अक्सर नहीं होते मगर
राहों पे पड़ाव कभी मुक़ाम से लगने लगते हैं

तुम्हारे ही ख्वाब में आ छिपा हूँ, आओ ढूँढ लो।

Destinations most often are not complete but,
Some stops on the way seem like destinations,

I've come to your dream to hide, seek me out.

हैलो

इक अलग ही समां होता है हर रोज़ जहाँ गूँजतीं रहती हैं
सिर्फ़ कीबोर्ड की टक-टक और फ़ोन की घंटियाँ दिन भर

हैलो?! घूमने चलोगी, आज काम का बिलकुल मन नहीं है।

It's quite a different ambience which echoes everyday,
Of the staccato keyboard taps and ringings of phones,

Hello?! Let's go out; just don't feel like working today.

Friday, November 15, 2013

झाँसा

ग़ुज़रे इक अर्सा हो गया है मुझे, बस ज़िंदा भर हूँ
रोज़ के ढर्रे की सीढ़ियाँ बस, चढ़ता उतरता भर हूँ

जीने का झाँसा सा होता है जब मिला करती हो तुम। 

Thursday, November 7, 2013

जाने क्या

किसी नज़्म सी उन्हें पढ़ लूँ ये कोशिश करता हूँ
पहेली सी बूझने की या ग़ज़ल सी गुनगुनाने की

जाने कब क्या कहतीं हैं, तुम्हारी चमकतीं आँखें।

I try that I might read them like some verse,
Solve like a riddle or hum them like a song,

Wonder what do they say, your shining eyes.

Friday, November 1, 2013

सुबह का ख्वाब

घुंगरुओं सा बजता कुछ सुनाई पड़ा था,
हौले-हौले से उतर रहा था सीढ़ियाँ छत की,
अभी ऊपर वाले बेडरूम में
गेस्ट रूम के दरवाज़े पर फिर
छन-छन उतरकर सीढ़ियाँ
रसोई की और मुड़ता हुआ।
कुछ देर फिर सब खामोश रहा,
ख्वाब था कोई शायद।
करवट बदली
खिड़की के काँच पर
ठंडी लाल रौशनी धीरे धीरे
गर्मा रही थी- भोर हुई ही थी बस।
नींद के धुंधलके में फिर
बज उठे वही घुंगरू से
कमरे ही में कहीं इस बार।

पल्लू के कोने में बाँधा
छनछनाती चाबियों का गुच्छा।

माँ कि साढ़ी पहनी थी तुमने आज।