ज़हन में एक अर्से से
रोज़ थोड़ा थोड़ा कर
एक ख़याल तराश रहा था।
कुछ बातों के हथौड़े बना,
चन्द लफ़्ज़ों की छैनी पर,
टुक-टुक ठोकता रहता था।
एक चोट हथौड़े की आज
मग़र ग़लत पड़ गयी,
छैनी हाथ से फिसल गयी,
और अनचाही चिंगारियों
से घिरा वो ख़याल फिर,
झुलस के टूट गया।
अब जाने फिर कब वो
छैनी हथौड़ी हाथ लगें,
और फिर मैं ख़याल तराशूं।
रोज़ थोड़ा थोड़ा कर
एक ख़याल तराश रहा था।
कुछ बातों के हथौड़े बना,
चन्द लफ़्ज़ों की छैनी पर,
टुक-टुक ठोकता रहता था।
एक चोट हथौड़े की आज
मग़र ग़लत पड़ गयी,
छैनी हाथ से फिसल गयी,
और अनचाही चिंगारियों
से घिरा वो ख़याल फिर,
झुलस के टूट गया।
अब जाने फिर कब वो
छैनी हथौड़ी हाथ लगें,
और फिर मैं ख़याल तराशूं।