Wednesday, December 5, 2012

अर्ज़ी

आज ज़िन्दगी से अर्ज़ी आई है,
कल के दिन की छुट्टी मांगी है।
कहती है, एक पुरानी याद है-
कल आने वाली है इक उम्र बाद।
यादों की भीड़ में उस एक को
खोजते पहचानते वक़्त लगेगा।
मिलते ही उसका हाथ पकड़
उसी गुज़रे लम्हे के खँडहर में ले जाऊंगा
जहाँ वो पिछली बार छोड़ गयी थी मुझे।

शायद उसके लौटने से वो खँडहर फिर
चंद लम्हों के लिए आबाद हो जाये।

Sunday, November 25, 2012

पैदल राहें

पहियों तले रास्ते
अक्सर भागते फिसलते हैं,
बस धुंदली लकीरें दिखती हैं।

पैदल मगर,
रास्ते अपना नाम बता
हमारे साथ चल पड़ते हैं।

रास्तों से पहचान हो जाती है।


रास्कल

वो आई नहीं अब तक,
बात जाने की कर रही है।
मैं इंतज़ार मैं बैठा,
उसके मेसज पढ़ रहा हूँ।

"बड़ी देर हो गई न?"

"कब से बैठे हो?"

"बस रस्ते में हूँ"

"क्या करूँ, उलझन थी,
कौन सी साढ़ी पहनूँ ?"

"हरी और बसंती
वाली पहनी है आखिर।"

"तुम्हे अच्छी लगेगी न?"

"6 बजे जाना है,
माँ घर पर हैं आज।"

"देर हुई तो शक करेंगी!"

"हमें आज चिक्की बनानी है।"

"कल खिलाऊँगी, मेरे
हाथ का बना पहली बार चखोगे।"

"रास्कल, दीवार पर बैठे हो,
मैं साढ़ी में कैसे बैठूंगी ?"

हसते-हसते दीवार से उतरा,
घड़ी 6 से कुछ 5 मिनट पीछे थी।
साढ़ी में संजीदा लगती थी,
पर ज्यों मुस्कुराती,
संजीदगी शरारत बन जाती थी।
उसकी वो बदमाश शर्म,
बड़ी नायाब थी।

मुझे आता देख, वहीं
लॉन पर बैठ गई।
लगा, हरी घाँस के बीच,
बसंती फूल खिल गया हो।
मेरे बैठते ही मेरा हाथ
कसके थाम लिया।
मेरी उँगलियों पे
अपनी उँगलियाँ फेरते कहा-

"रास्कल!
 चलो मुझे अब घर छोड़ आओ।"

सुबह से नींद


मेरी आँखों में सुबह से नींद है.
कल रात जो वो रास्ता भूली,
आज जाके अपने पते पहुंची है.
अब ऐसी बेवक्त मेहमान ये,
न रोकी जाती न छोड़ी ही.
इस बार,
हाथ उसके टाइम टेबल थमा दूंगा.
इस उम्मीद से,
की फिर कभी न कहना पड़े,
मेरी आँखों में सुबह से नींद है.

ख्वाब का पेड़

रात एक बार इक ख्वाब से गुज़रते 
मैदान में उस ख्वाब का बीज बोया था।
अगली कई रातों तक ख्वाब बरसते रहे,
आज यूँ ही टहलते-टहलते मैदान में 
इक नया पेड़ दिखा, जिसे पहले न देखा था।
सोचा दम भर इस नई छाँव में बैठ फिर 
घर की ओर मुड़ जाऊंगा।
कब आँख लगी, पता ही न चला।

ख्वाब में देखा मेरे बीज का पेड़ बन गया है,
और उसकी छाँव में लेटे,
मैं फिर ख्वाब देख रहा हूँ। 

Monday, November 5, 2012

अलार्म

कल रात ख्वाब देखते देखते
अचानक छींक आ गई,
ख्याल चन्द उस ख्वाब के
अँधेरे में बिखर गए।
वो कुछ सुहाना सा
जान पड़ा था ख्वाब,
सो इक मोम बत्ती लिए
अँधेरे टटोलने निकल पड़ा।
ज्यूं ज्यूं टुकड़े मिलते गए,
ख्वाब मैं अपना जोड़ता गया।
आखरी टुकड़ा बस जोड़ा ही था,
कबख्त!
सुबह छः बजे का अलार्म बज गया।
नींद चौंक कुछ यूँ खुली के
रात भर बटोरा ख्वाब वो
फिर टूटके बिखर गया।

Wednesday, October 31, 2012

पैग़ाम

आँखों से पैग़ाम लिखा करती थी
काजल की स्याही में नज़र डुबोके।


पलकें झपक के वो भेज देती थी
बिना पतों के वो पैगाम- क्या जाने
किसे मिले वो, कौन उन्हें पढ़ता हो।
अपना पता नहीं लिखती थी मगर,
जवाब का इंतज़ार ज़रूर करती थी।


आँखों से पैग़ाम लिखा करती थी
काजल की स्याही में नज़र डुबोके।


नेरुदा की इक नज़्म पर ग़ौर करते
बुकस्टोर के इक कोने में बैठा, यूँ ही  
दो बच्चियों को सुन रहा था बात करते
ऑस्टेन और ‘यू’एव गोट मैल’ पर जब,
ग़ालिबन दिल पर दस्तक हुई; मैंने देखा


आँखों से पैग़ाम लिख भेजा था इक उसने काजल की स्याही में अपनी नज़र डुबोके।



Friday, October 26, 2012

शिकायत

रात फिर जागते कट रही थी,
किताबें भी मुझसे ऊब चुकीं थी,
कलम मेज़ पर सुस्ता रही थी,
बालकनी के खुले दरवाज़े से 
चाँदनी झिझकती झाँक रही थी।
कुर्सी ज़रा पीछे खुकाए बहार देखा  
चाँद मूंह सिकोड़े पीला पड़ा हुआ था।
"क्यूँ  ऐसे जागते रहते हो, तुम्हे यूँ 
देख रात मुझे बुरे सपने आते हैं।"

Thursday, October 25, 2012

इन्तेहा

एक कंकड़ उछाल फेंका है सोच
चोट इन्तेहा को जा लगेगी।
वो वापस लौट मेरे माथे को लगा
देखा इन्तेहा वहाँ मुस्काने लगी।

Tuesday, October 16, 2012

बित्ता-बित्ता

हर अमावास से अमावास तक,
वो बैठा रात की चादर काढ़ता है।
तारों के छींटों के आगे हर रोज़,
बित्ता-बित्ता भर पूरा चाँद काढ़ता  है।

Thursday, August 16, 2012

फ़िर्दौसी-फ़िरोज़ी

अटारी की खिड़की की देहली पे
एक तख्ती लगा उस पर चढ़,
उछल-उछल कोशिश करता हूँ
के किसी रोज़ उँगलियाँ मेरी,
फ़िर्दौस की फ़िरोज़ी धूल छू आयें।
मेरा मन थका उदास सा है,
उस पर ज़रा वो धूल मल लूं के,
वो भी ज़रा उछल
फ़िर्दौसी-फ़िरोज़ी हो जाए।

अटारी- atticदेहली- window sillतख्ती- wooden plankफ़िर्दौस- heavens/ garden in paradiseफ़िरोज़ी- turquoise


Monday, July 30, 2012

सन्ताराश

ज़हन में एक अर्से से
रोज़ थोड़ा थोड़ा कर
एक ख़याल तराश रहा था
कुछ बातों के हथौड़े बना,
चन्द लफ़्ज़ों की छैनी पर,
टुक-टुक ठोकता रहता था।

एक चोट हथौड़े की आज
मग़र ग़लत पड़ गयी,
छैनी हाथ से फिसल गयी,
और अनचाही चिंगारियों
से घिरा वो  ख़याल फिर,
झुलस के टूट गया।

अब जाने फिर कब वो
छैनी हथौड़ी हाथ लगें,
और फिर मैं ख़याल तराशूं।



Friday, July 27, 2012

मुर्दा पल

रात सरकती गुज़र रही थी,
वक़्त रेंगता कट रहा था।
पसीने से भीगे चेहरे पे उसके,
बूँद भर खून का टपक रहा था।

कहा मार आया हूँ एक पल वहाँ,
अब रूह उसकी पीछा कर रही है।
ज़रा दम भरलूँ ठहर के कहीं पर,
रूह सर चढ़े इस ताक़ में बैठी है।

भाग वो रहा था, लेकिन बेरफ्तार,
धौंकनी सा सीना साँस से ख़ाली था।
घुटी आँख में टपका खून उतर पड़ा,
मुर्दा पल वो आख़िर सर चढ़ गया था।

Thursday, July 26, 2012

मैं आप हम

कभी इक मैं था,
मैं की आदत ही सी थी।
फिर मैं और आप हुए,
मैं की आदत छूटने लगी।
जाने कब आप मैं हम हो गए,
आदत पड़ते भी देर न लगी।

कुछ रोज़ पहले मगर,
हम फिर मैं ही हो गया।
कोशिश करते भी मगर, अब 
मैं की आदत नहीं पड़ रही।



Thursday, May 24, 2012

उर्दू

बचपन में अंग्रेज़ी ओ हिंदी
के अल्फाज़ों के बीच अचानक
जब रेडियो पे कभी ग़ज़ल
सुन लिया करते थे उर्दू में,
तो यूँ लगता था के अचानक
घाँस के मैदान पे चलते चलते
किसी पत्तेदार दरख़्त से मुखातिब हुए.
आगे भले ही चल पड़ना हो,
बस चंद लम्हे तो ठहर गुज़र लें
दरख़्त-ए-उर्दू  के ठन्डे साए में.

Thursday, May 10, 2012

नामुराद

सुबह के नाश्ते में आज
चाय बिस्कुट के साथ
भोर कि धुप भी चखी थी.
सो दिन आज का पूरा 
ताज़ा ताज़ा गुज़रना था,
पर गुज़रा नहीं.

नामुराद ये खाँसी न जाने
कब पीछा छोड़ेगी ?

Tuesday, May 8, 2012

मन

मन पँखों पे सवार
उड़ा है खोज में 
के मिले कहीं तो 
उतरे उस शाँत डाल पे.

Monday, May 7, 2012

तुम्हारा नाम ही सही

रात छत पे बैठ
चाँद की रौशनी में
आस्मां की स्याही में
अपनी कलम डुबोता हूँ.
उस पुरानी डायरी में फिर
तरह तरह से बनाकर
तुम्हारा नाम लिखता हूँ.
कोशिश करता हूँ
किसी में तुम्हारी मासूमियत,
किसी में शरारत
किसी में गुस्सा तो,
किसी में तुम्हारी मुस्कुराहट,
शायद झलक जाये.
वक़्त बीतता पता नहीं चलता.

तुम साथ न हो तो क्या,
तुम्हारा नाम ही सही.

Sunday, May 6, 2012

सन्नाटे को शाँत करूँ

ख़याल इक दूजे से टकराने लगे हैं,
सन्नाटा आज फिर शोर कर रहा है .
अब सब मुझसे पूछने लगे हैं,
अर्सा हुआ, तू लिख क्यों नहीं रहा है?

शायद कुछ ज़हन को कचोट रहा था,
जाने उसे कैसे और कहाँ जा ढूँढूं ?
खैर, आज पर चुप्पी को ज़रा तोड़, 
कमस्कम, उस सन्नाटे को शाँत करूँ.


112 days- That's how long it had been since I'd updated my blog or written anything for that matter. So, here's breaking the dry spell and hoping that today's sprinkles go on to be the monsoons. Feels good to be back.

Saturday, January 14, 2012

आज़ाद

खुले नीले आसमान को
आँखों में भरके आज मैं
रात देखूंगा सोते सोते
उड़ते आज़ाद ख्वाब मैं.

Thursday, January 12, 2012

दुःख भूल

घर दुआर फाटक बहिर, खीलत कदम्ब के फूल,
फूल के फल कागा चुगे, बैठ छाओं दुःख भूल.

Wednesday, January 11, 2012

साथ

कल बैठे सोच रहा था वो बात
जो आपने जाते-जाते कही थी.
आख़िर क्यों रहें हम साथ,
बात तो दोनों को लगी सही थी.

Tuesday, January 10, 2012

इंतज़ार

वो कल की बात और थी, जब नुक्कड़ पे इंतज़ार होता था.
अब गर होता भी है तो, इंतज़ार स्क्रीन और कीज़ पे होता है.

Monday, January 9, 2012

इतवारी चम्मच

ड्राइंग रूम के सोफे पे बैठ
अखबार से नज़र चुराते
मैं उन्हें अब तब देख रहा था।
वैसे रसोई का काम हम
साथ ही किया करते हैं,
पर इतवार के दिन रसोई
मेरे लिए बंद होती है।
तब खड़े वो प्लेटफ़ॉर्म पे
परात रखे, आटा गूंद रही थीं.
लम्बे, घने, हलके घुंगराले बाल
जिन्हें वो अक्सर बाँधे रखती हैं,
तब खुले थे।
कुछ घंटा भर हुआ होगा,
वो नहा के निकली थीं,
बाल भी सूखे नहीं थे।
यूँ तो घर पर वो
ट्राउज़र और कमीज़ में होती हैं,
उस रोज़ मगर,
वो ग्रे बोर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी,
जो मेरी सालगिरह पे पहन,
उन्होंने मुझे तोहफे में दिया था।
नम खुले बालों को कान के पीछे
दबा कर काम कर रहीं थीं,
पर कमबख्त एक लट बार-बार
छूट के आँखों के सामने झूल जाती।
आटे सने हाथों की कलाइयों से
बार-बार नाकाम कोशिश कर रहीं थीं।
चिड़ती आँखे लट को अनदेखा कर,
काम में ध्यान लगाने की कोशिश
करें तो आखिर कैसे करें-
लट कमबख्त तो मानती ही न थी।
संवारते-संवारते आटा थोड़ा गाल पे
और कुछ ज़रा नाक पे जा लगा था।
उस ओर देखने से मैं
खुद को रोक नहीं पाता था।
चिड़ते झल्लाते मेरी ओर देखा-

"अरे कुछ करो न,
क्या बैठे मुस्कुराए जा रहे हो!"

अखबार रख अपनी हँसी दबाए
मैं रसोई में चला गया।
उनके पीछे खड़े हो
धीरे से उस नटखट लट को
 उनकी घनी, थोड़ी सी भीगी
ज़ुल्फों से ला मिलाया।
वो नर्म, नम ज़ुल्फें उँगलियों में
रेशम की तारों सी लगती थीं
जिन से मंद-मंद
इतवारी सुबह की खुशबु आ रही थी।
उनका ध्यान आटे पे था और मैं
इसी बहाने उनकी ज़ुल्फों को सहलाते
अपनी उँगलियों से गुज़ार रहा था।

"अरे क्या कर रहे हो,
देखो मेरा पल्लू भीग रहा है,
ज़रा जूड़ा बना दो न।"

उन्हें छूते ही जैसे मेरा हर काम
खुदबखुद हौले हो गया था।
धीरे से उन्हें रेशा रेशा बटोरा,
वो इतनी घनी हैं के
मेरी दोनों हथेलियाँ लगीं उन्हें
साथ थामे रखने में,
जाने वो अकेले कैसे संभालती थीं।
जैसे तैसे मैंने घुमाकर
एक कुछ टेढ़ा सा जूड़ा बना ही लिया।
जब कुछ मिला नहीं तो
पास पड़ा एक चम्मच उसमे खोंच दिया।
आटा गुंद चूका था और परात लिए
चूल्हे के सामने जब वो गयीं
तो सामने थाली में खुद को देख
ज़ोर से हसने लगीं।
अपने हाथ धोये और
मेरे पीछे से आकर
अपने गीले हाथ
मेरी दाढ़ी पे फेरते कहा-

"मेरे इतवारी चम्मच,
अब रोज़ जूड़ा तुम ही बनाना!"

धर्म

एक सवाल बचपन का था
जो अब तक लाजवाब है.
ये 'धर्म' आखिर क्या होता है,
क्या इसका भी कोई जवाब है?

ज़ख्म

ज़रा सा झल्ला कर
कुछ तैश में आकर
वो तकिया जो आपने
मुझ पर मारा है,
ज़ख्म सा हो गया है
हल्का सा दिल पर.
नज़र भर प्यार से बस
देख लीजिए इस तरफ,
भर जाएगा.

Friday, January 6, 2012

आओगे

गुज़री है श्याम लिखते लिखते, रात भी बैठ लिखूंगा.
सुबह जो आप आओगे, नज़र आपके ये नज़्म कर दूंगा.

Thursday, January 5, 2012

बुत

बुत बना रखा है एक
बगीचे की मिट्टी से.
रोज़ पानी डालता हूँ
के एक हँसी खिल जाए.

खिड़कियाँ

चेहरे अनजाने कुछ
काँच की खिड़कियों से
रुक-रुक के झाँकते हैं.
वो खिड़कियाँ जो मेरे
ज़हन के कमरों में
अक्सर बंद रहा करतीं थीं.
जाने क्यों आज कल उनके
फाटक बिन आहट, बिना
किसी हवा ही के बगैर
खुदबखुद  खटखटाते हैं.
जब चिटकनी कसने जाता हूँ
तो कोई नज़र नहीं आता है
कभी-कभी लेकिन
एक साया सा झाँक जाता है
उन्हीं अनजाने चेहरों का
और कसी चिटकनी के बावजूद
 खिड़कियों के फाटक बिना
आहट बिन हवा के किसी
फिर खुदबखुद ही
खटखटाने लगते हैं.

Tuesday, January 3, 2012

ग्रंथों में बंद

खुदा, भगवन, रब्बा, इश्वर
इन सब को हम पहचानते हैं.
दिल में हमारे हो न हों, इन्हें
ग्रंथों में बंद कर, हम सब जानते हैं.

सुफैदपोश

रात फिर कटी थी जागते,
टूटे पल गिन रहा था.
क्या सत, असत क्या सोच,
गुज़रे कल गिन रहा था.
थक सा गया था, हलकी
झपकी आ ही रही थी.
दरवाज़े पर लगातार दस्तक
पर, सुनाई पड़ सी रही थी.
उठा कोसते, जोड़े कड़काते
देखूं आखिर कौन अड़ा है.
चिटकनी खोल देखा, काला
सच सुफैदपोश खड़ा है.

Sunday, January 1, 2012

नया मैं

आईने के सामने खड़ा मैं
अपना पुराना अक्स देखता हूँ.
उस पुराने अक्स में छुपा
एक नया मैं ढूँढता हूँ.