Thursday, January 5, 2012

खिड़कियाँ

चेहरे अनजाने कुछ
काँच की खिड़कियों से
रुक-रुक के झाँकते हैं.
वो खिड़कियाँ जो मेरे
ज़हन के कमरों में
अक्सर बंद रहा करतीं थीं.
जाने क्यों आज कल उनके
फाटक बिन आहट, बिना
किसी हवा ही के बगैर
खुदबखुद  खटखटाते हैं.
जब चिटकनी कसने जाता हूँ
तो कोई नज़र नहीं आता है
कभी-कभी लेकिन
एक साया सा झाँक जाता है
उन्हीं अनजाने चेहरों का
और कसी चिटकनी के बावजूद
 खिड़कियों के फाटक बिना
आहट बिन हवा के किसी
फिर खुदबखुद ही
खटखटाने लगते हैं.

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