Monday, December 30, 2013

सुरीली

तारीख़ें इस कैलेंडर की ख़त्म होनें को हैं
बस चन्द अलफ़ाज़ पीछे छोड़े जा रहीं हैं

कुछ न कहो, ख़ामोशी ये बड़ी सुरीली है।

Dates of this calendar are almost over,
Leaving just a few words in their wake,

Don't speak, this silence is so musical.

Monday, December 23, 2013

कलेक्शन

आज दिन भर की कोरी धूप में सिकी रज़ाई में
लिपट के पहलु में साथ, रात यह सुबह करूँगा

तुम्हारी क़िताबों का कलेक्शन बहुत अच्छा है।

In the duvet warmed up by today's pristine sun,
Wrapped together I'll turn this night into dawn,

Your collection of books is genuinely fantastic.

Saturday, December 21, 2013

लेट

बुझी बुझी सी आँखों में अभी भोर हुई न थी
सुर्ख़ लबों पर ख़्वाब अब भी मुस्कुरा रहा था

ट्रेन कम्बखत, चार घंटे लेट पहुँचने वाली है।

In the closed eyes it was yet to be dawn,
A dream, still smiled upon the rosy lips,

The bloody train'll reach four hours late.

Friday, December 20, 2013

पहले पहल

कुछ ऐसी मुलाक़ात थी हमारी वो पहले पहल रोज़
दिल थमा भी चला भी और जो भी कहा वो फ़िज़ूल

लाज़्मी बात जो कह न पाया, ख़त में लिख भेजा है।

Such was the way we'd met for the very first time,
My heart stopped and beat too as I blabbered on,

What of value I couldn't say, I send you in a letter.

Wednesday, December 18, 2013

रात सारी

सोते पत्तों से टपकती ओस की आवाज़
सुकूं से खेतों को सहलाकर गुज़रती हवा 

रात सारी गुज़ारी है तुम्हारी नींद के साथ।

Soft drips of dewdrops off the dozing leaves,
Peaceful caresses of the breeze on the crops,

Spent the whole night with your tender sleep.

Friday, December 13, 2013

चम्पी

स्लेटी बादल धूल में लिपटे कत्थई पड़ गए थे
बड़े थके-थके से थे के बस अब बरस ही पड़ें

आओ ज़रा ठंडी चम्पी कर दूँ, नींद आ जाएगी।

Wednesday, December 11, 2013

हक़

घंटों ख़ामोश बैठे खिड़की पर कुछ सोचने की आदत 
या बेमतलब बेमानी कुछ भी बोलते रहने की आदत 

डाँट दिया करो कभी-कभी, हक़ बनता है तुम्हारा। 

Sunday, December 8, 2013

हरकतें

कुछ करने की क्यों हमेशा वजह चाहिए
क्या बेवजह की कुछ हरकतें नहीं होतीं

अक्सर तुम्हे देखा है यूँ ही मुस्कुराते हुए। 

Saturday, December 7, 2013

ऐब

एक एक दीवार घर की, यूँ आईनों से टाँगी रखी है
फिर भी जाने क्यों कैसे, कुछ ऐब छिप ही जाते हैं

देखता हूँ तुम्हारी आँखों में, बस सच ही दिखता है।

Each and every wall of the house is hung with mirrors,
Wonder how and why certain flaws still remain hidden,

I gaze into your eyes and see nothing but only the truth. 

Friday, December 6, 2013

जाड़े

भोर की आमद ही से जाड़े सुलगने लगते हैं
और साँसों से कुनकुना धुआँ उठने लगता है

आओ, छत पर आज सूरज उगाने चलते हैं।

The winters smolder soon as the dawn arrives,
And warm smoky mists rise along with breaths,

Come, let us raise the sun on the terrace today.

Wednesday, December 4, 2013

काँच

बड़ी नाज़ुक सी जुम्बिश हुई थी, काँच सा कुछ टूटा था
उस वक़्त महसूस न हुआ, वो ज़ख्म घर कर गया था

क्यों तुम्हारी आँखों से आज भी वो माज़ी छलक जाता है?

It was the faintest of tremors yet shattering something glass-like
Though it was never realized then the wound'd spidered in deep

Why even today your eyes drown, brim over streaks of the past?

Tuesday, December 3, 2013

पसंद

रोज़ कुछ तो ऐसा कर ही लेते हैं जो चाहते नहीं
अब हालत कहाँ किसी की पसंद पूछा करते हैं।

मेथी का साग बनाया है मैंने, पसंद है न तुम्हे?

Monday, December 2, 2013

मिला?

बहुत कुछ कहा न था, लिखा न था
घुट रहा था अपनी हांफती साँसों में

ख़त लिखा था जो तुम्हे, मिला वो? 

Monday, November 25, 2013

चुप्पी

पन्ने ज़र्द पड़ गए हैं इंतज़ार में
लिखे न सही कुछ गोद ही दे कोई

भले डाँटो, पर कुछ कहो तो सही।  

Sunday, November 24, 2013

ख़ास

कुछ कहूँ भी तो, काग़ज़ सब अनसुना किए देता है
क़लम भी इसी वक़्त है बेज़ुबां, कुछ कहती ही नहीं

अब मान भी जाओ, देखो मैंने ख़ास चाय बनाई है।

Even if I say something the paper just ignores them all,
The pen too has lost its tongue at the moment, is silent,

Come on now please, see I have made you special tea.

Thursday, November 21, 2013

ज़िक्र

ज़िक्र से यादें ताज़ा होतीं हैं कभी
कभी यादों से ज़िक्र छिड़ जाते हैं 

कल तुम्हारी बात, आज मुलाक़ात। 

Wednesday, November 20, 2013

मुक़ाम

मुक़ाम मुक़म्मिल से अक्सर नहीं होते मगर
राहों पे पड़ाव कभी मुक़ाम से लगने लगते हैं

तुम्हारे ही ख्वाब में आ छिपा हूँ, आओ ढूँढ लो।

Destinations most often are not complete but,
Some stops on the way seem like destinations,

I've come to your dream to hide, seek me out.

हैलो

इक अलग ही समां होता है हर रोज़ जहाँ गूँजतीं रहती हैं
सिर्फ़ कीबोर्ड की टक-टक और फ़ोन की घंटियाँ दिन भर

हैलो?! घूमने चलोगी, आज काम का बिलकुल मन नहीं है।

It's quite a different ambience which echoes everyday,
Of the staccato keyboard taps and ringings of phones,

Hello?! Let's go out; just don't feel like working today.

Friday, November 15, 2013

झाँसा

ग़ुज़रे इक अर्सा हो गया है मुझे, बस ज़िंदा भर हूँ
रोज़ के ढर्रे की सीढ़ियाँ बस, चढ़ता उतरता भर हूँ

जीने का झाँसा सा होता है जब मिला करती हो तुम। 

Thursday, November 7, 2013

जाने क्या

किसी नज़्म सी उन्हें पढ़ लूँ ये कोशिश करता हूँ
पहेली सी बूझने की या ग़ज़ल सी गुनगुनाने की

जाने कब क्या कहतीं हैं, तुम्हारी चमकतीं आँखें।

I try that I might read them like some verse,
Solve like a riddle or hum them like a song,

Wonder what do they say, your shining eyes.

Friday, November 1, 2013

सुबह का ख्वाब

घुंगरुओं सा बजता कुछ सुनाई पड़ा था,
हौले-हौले से उतर रहा था सीढ़ियाँ छत की,
अभी ऊपर वाले बेडरूम में
गेस्ट रूम के दरवाज़े पर फिर
छन-छन उतरकर सीढ़ियाँ
रसोई की और मुड़ता हुआ।
कुछ देर फिर सब खामोश रहा,
ख्वाब था कोई शायद।
करवट बदली
खिड़की के काँच पर
ठंडी लाल रौशनी धीरे धीरे
गर्मा रही थी- भोर हुई ही थी बस।
नींद के धुंधलके में फिर
बज उठे वही घुंगरू से
कमरे ही में कहीं इस बार।

पल्लू के कोने में बाँधा
छनछनाती चाबियों का गुच्छा।

माँ कि साढ़ी पहनी थी तुमने आज।




Wednesday, October 30, 2013

पोशीदा

इर्द गिर्द हम अपने पोशीदा से दायरे बना लिया करते हैं अक्सर
पर दो दायरे जब घुलने लगें उनमे पोशीदा फिर कुछ नहीं रहता

उस रात बहुत बातें हुईं थी हमारी, कब सुबह हुई पता ही न चला।

Often we form around our selves some veiled barriers,
But when two barriers begin to merge no veils remain,

We spoke for so long that night, didn't notice the dawn.


पोशीदा- covered up, here used as 'invisible'

Tuesday, October 29, 2013

बातें

उक्ता के पुराने से, फ़लक नया रंगाना है तुम्हारे पसंद के रंगों में
पुराना उतार तो दिया है, पर नया कौन सा चढ़ाऊँ सूझता नहीं है

कल ही तो तुम्हारी माँ के साथ बातें हुईं थीं, तुम्हारे बचपन की।


Monday, October 28, 2013

फ़िक्र सी

अँधेरा सा था कुछ, अँधेरा नहीं था मगर
रात ही सी थी ज़रा, पूरी रात नहीं थी पर

घर जल्दी आ जाया करो, फ़िक्र सी होती है। 

Sunday, October 27, 2013

आइस-क्रीम

आवाज़ें हमारी, चिड़कर ज़रा ऊँची हो गईं थीं
माथों पर दोनों ही के शिकन गहराने लगी थी

बड़े दिन हुए आइस-क्रीम खाए, चलो चलते हैं।    

Saturday, October 26, 2013

दफ़्तर

बड़ी ही अच्छी ख़ुशबू थी बाहर बरामदे में
दोपहर बस हुई भर थी, भूख लग आई थी

दफ़्तर से यूँ ही, मैं जल्द निकल आया हूँ।

Smelt really delicious, out in the verandah,
It was just afternoon, I was getting hungry,

Just like that, I've left early from the office.

Wednesday, October 23, 2013

ख़ैरियत

इक रोज़ सुना कि कहीं बंट रही थी ख़ैरियत ख़ैरात में
ख़ैर, पहुँचे तो देखा क़तार लम्बी खिंची थी, लौट आए 

ख़त आया था तुम्हारा, लिखा था सब कुछ ख़ैरियत। 

Came to hear one day that 'fine' is being given for free someplace,
Well, when I reached the queue stretched too long, so I came back,

There was a letter from you & you had written everything was fine.



Sunday, October 20, 2013

काजल पेंसिल

अपने गालों पर हाथ फेरते अक्सर अफ़सोस हुआ करता है
दाढ़ी पूरी क्यों नहीं उगती, फ्रेंच कट से काम चलाना पड़ता है

जो ख़त्म हो गई थी तुम्हारी काजल पेंसिल, नई ले आया हूँ। 

Friday, October 18, 2013

ब्रूच

आसमान सजधज कर चमक सा रहा है
काले सूट पर पूरे चाँद का ब्रूच लगाया है

कितनी रौशन रात है, ज़रा टहल आते हैं।  

The sky seems to shine all suited up,
A full moon brooch on its black suit,

Such a bright night, let's take a walk.

एक फ़ोन

इक बाग़ है कहीं दूर जहाँ खिला करते हैं
फूल ख़ामोशी के, सुकूँ के, फुरसत के भी 

मिलो न सही, एक फ़ोन ही कर दिया करो। 

Wednesday, October 16, 2013

मौसम

अभी बहार ने नए कपड़े सिये नहीं थे दरख्तों के
पतझड़ ने पुराने उतार कर ज़मीन पे बिछा दिए

ज़रा और क़रीब बैठो मेरे, सर्दियाँ आने वालीं हैं। 

The spring had yet to finish sewing new clothes for the trees,
The autumn stripped their old ones & laid them on the earth,

Please sit a little more close to me, winters are soon to come.
\

Monday, October 14, 2013

भाप

इस मौसम, ग़ुज़रे वक़्त की नम भाप
हमारे आज पर बूँदें बन बरस पड़ती हैं

जज़्बात सभी, सीले-सीले से लगते हैं।

This season, the moist steam of time past,
Turns into drops, raining upon our today,

Every feeling, every emotion seems damp.

Sunday, October 13, 2013

ओस

भोर के ताज़े खिले फूल, धुलकर टपक रहे हैं
सुबह सुबह की आखिरी ओस की छुअन में

बाल गीले हैं, बस अभी नहाकर निकली हो। 

Saturday, October 12, 2013

स्टेइंड ग्लास

रंगीन काँच के टुकड़ों सी चंद वो यादें हैं
इस स्टेइंड ग्लास विंडो सी ज़िन्दगी के

हक़ीक़त क़ाश आइना नहीं, काँच होती। 

Some memories're like pieces of coloured glass,
Of this life which's like a stained glass window,

If only reality was not like a mirror but a glass.

Wednesday, October 9, 2013

आँखमिचौली

अब जो बैठा हूँ के तुम्हे ख़त लिखूँ
लफ्ज़ शैतान, कहीं छुप गए हैं सारे

आँखमिचौली, सिर्फ बच्चे नहीं खेलते।  

Monday, October 7, 2013

नमक

उस रोज़  की याद आए तो ज़ुबां नमकीन सी हो जाती है
सूरज को समंदर में डुबा, उफ़क़ पर हमने चाँद टांगा था 

तनहा समंदर में पाँव धोए हैं, सूख जाएँ तो नमक दिखेगा।  

Saturday, October 5, 2013

खामोशियाँ

दिन भर के शोर शराबे से खामोशियाँ चुनकर
अपनी डायरी के पन्नों के बीच दबाकर रखी हैं 

श्याम की चाय पर जो मिलोगी तो सुनाऊँगा।

Picking out silences from the day's noises,
I keep them safe, in the pages of my diary,

Will read them to you over the evening tea.

Friday, September 27, 2013

डर

रहते, सुलगते, घुट, कचोट के उबल पड़ा वो
कई रातों का ख्वाब अब नासूर बन गया था 

क्या जागोगी मेरे साथ, नींद से डर लगता है।

Stifling, simmering, grappling made it boil over
The dream of many nights, now an open wound


Please stay up with me; I am so scared to sleep.

Saturday, September 21, 2013

दस्तक

डाकिये की साइकल की घंटी का हुआ करता था कभी
फिर फोन, अब मोबाइल की घंटी का इंतज़ार होता है

अर्सा हो गया तुम्हे, दरवाज़े पर दस्तक दिए आए हुए। 

Friday, September 20, 2013

कांटे

मैं सालों से ग़ुज़रता जा रहा हूँ जैसे मौसम
घड़ी कांटे चुभोके दौड़ाती है, रूकती ही नहीं

तुम भी साथ होलो तो चुभन महसूस न हो।

I pass through the years, as if am a season,
The clock herds with its needles, ceaseless,

If you too come with me, they will not poke.

Wednesday, September 18, 2013

गृहप्रवेश

एड़ियाँ दोनों सब्ज़ सी हो गईं थी
गीली घाँस पर नंगे पाँव चलकर

गृहप्रवेश कर लो, घर हरा रहेगा।  


Tuesday, September 17, 2013

ज़रा आओ

क्यों उस याद सी नहीं आती जो माज़ी में बस सी गई है
आतिशी लमहों सी आकर, पल भर में गुम हो जाती हो

अँधेरा कर इंतज़ार में बैठा हूँ, ज़रा आओ तो रौशनी हो।

Why don't you come like that remembrance which lives in memory,
Instead you come like flashing moments and vanish within one too,

I sit having darkened it around awaiting for you to come with light.

Sunday, September 15, 2013

काजल

न अलफ़ाज़ एक भी न स्याही का दाग़ ही कोई
भोर की पहली किरन सा, उजला कोरा काग़ज़

बड़ी प्यारी लगती हो, काजल लगाने से पहले।

Neither a single word, nor even a speck of ink,
Like the first light of dawn, bright blank sheet,

You look so adorable before wearing the kohl.


Saturday, September 14, 2013

सुबह

अखबार में लिपटी अलसाई सुबह
सर्द कोहरे में ज़रा सिल सी गई थी

कुनकुना ख़्वाब था, जगा दिया तुमने। 

A lazy morning wrapped in the day's paper,
Dampened a smidge by the chilly grey mist,

A lukewarm dream you kissed me awake of.

Friday, September 13, 2013

सुनूँ

वो अक्सर तुमसे ज़्यादा बोला करतीं हैं
अपनी झुकती, शर्माती ख़ामोशियों में

पलकें तो उठाओ, सुनूँ क्या कह रही हैं आँखें। 


Tuesday, September 10, 2013

बाँट लें

अगस्त की दोपहर एक, गीले पुल पर टहले थे 
पिछले जाड़े की इक सुबह, तापकर गुज़ारी थी 

फुरसतें अब कम ही हैं हमारी, आओ बाँट लें।

An August afternoon, we strolled the wet bridge,
A morning of winter past was spent warming up,

Our leisures are but few, come let us share them.

Sunday, September 8, 2013

शुक्र है

देर तक देखा मुझे और छोड़ चली गई
शुक्र है बारिश का के तुमने देखा नहीं 

आँखों की नमी जो बूँदों में छुप गई थी। 

Saturday, September 7, 2013

क्या, दोगे?

मेरा चाँद आज आया नहीं है,
मुझे अपना सूरज उधार दोगे?

बातें हो रहीं है रात की दिन से।  

Monday, September 2, 2013

छत

मैं रात को रवाना करता था 
तुम सुबह को बुला लाती थी

याद है, वो लड़कपन की छत?

I used to give the night its send-off,
As you would usher in the morning,

Remember, our childhood terrace?

Sunday, September 1, 2013

लोरी

लम्बा था दिन बड़ा, बहुत थक गया हूँ
फिर भी न जाने नींद क्यों आती नहीं है

पुकार लो लोरी से उसे, शायद आ जाए।

It was a long day and I am too tired,
Yet don't know why I still can't sleep,

Call it with a lullaby and I just might.

Wednesday, August 28, 2013

शरीर

टुकड़ा टुकड़ा ढून्ढ कर बटोरा है ख़ुद को 
आखिरी एक टुकड़ा मगर मिलता ही नहीं 

बड़ी शरीर हो, कहीं तुमने तो नहीं छुपा दिया?

Tuesday, August 20, 2013

लकीरें

चंद लकीरें खेंची थीं ये सोचकर
तुम्हारी तस्वीर बनाऊंगा आज 

तस्वीर तो बनी नहीं, नज़्म लिख गई।  

Thursday, August 15, 2013

फ़िल्म

हाथ कुछ यूँ पकड़ रखा था मेरा
जैसे, बस छोड़ ही जाउँगा तुम्हे

डरो मत, बस फ़िल्म ही तो है। 

Wednesday, August 14, 2013

कार्ड

पलटते ज़र्द से पन्नों से आज
इक पुरानी नज़्म गिर गई है

कार्ड था तुम्हारा, मेरा बुकमार्क। 

Tuesday, August 13, 2013

ख़त

इतवार की दोपहर में
बेवक्त चाय का ज़ायका

माज़ी से ख़त आया है आज। 

Monday, August 12, 2013

शक़

आँखों ने शक़ से देखा था
के कौन आई है मेरे साथ

पाज़ेब हैं, ज़रा पहनो तो। 

Sunday, August 11, 2013

छाता

सीली दीवार पे लटकता
भीगी खिड़की का टुकड़ा 

छाता रख लो, बरसात है। 

Hanging upon a damp wall,
A piece of a soaked window,

Keep an umbrella, its rainy.

Saturday, August 10, 2013

शायद

बदली सी ज़ुल्फें
झलक भर गाल,

यूँ मुस्कुराई थी!

Black cloud like hair,
Glimpse, of a dimple,

How you had smiled! 

Saturday, August 3, 2013

मोमबत्तियाँ

अँधेरा पसन्द नहीं था ज़रा भी,
मगर अक्सर
बुझा दिया करती थी घर की बत्तियाँ ।
एक एक कर हर कमरे में फिर
जलाया करती थी छोटी बड़ी मोमबत्तियाँ ।
बड़ा शौक़ था मोमबत्तियों का-
कहती थी उनकी लौ दिल सी धड़कती है, ज़िन्दा है
उन बिजली के ठंडे लाटुओं सी बेजान नहीं।

अपनी ज़िन्दा रौशनियों सी घिरी
आईने के सामने अपने बाल बनाया करती थी।
मैं अक्सर छुप छुप के देखा करता था,
तस्वीरें उतारा करता था।
साँझ सी घुलती रौशनी में
पूरा चाँद जैसे बरसाती घटाओं को
अपनी उँगलियों से तार कर रहा हो।

मेज़ की मोमबत्तियों की मद्धम लौ में
फर्श पे कोहनियों के बल लेटे,
अपनी किताबें गुनगुनाया करती थी।
मैं हमेशा टोकता-
'यूँ पढ़ोगी तो चश्मे चढ़ जाएँगे !'
सुनकर मेरा  चश्मा नाक पर ताने
मुझ पर जीभ चिढ़ाया करती थी।

छुट्टी के रोज़ कभी
हॉल का फ़र्नीचर हटा
कुकर की सीटियों के बीच मुझे
सालसा सिखाने की कोशिश करती।
चिड़कर फिर मेरे अनाड़ीपन से
ग़ुस्से से कुछ मोमबत्तियाँ
बुझा दिया करती।

मोमबत्तियाँ वो सारी अब
सिर्फ तस्वीरों में ही रौशन हैं-
दीवारों पर, मेज़ों पर,
खिड़कियों की चौखट पर,
दराज़ों, क़िताबों में
मेरे बटुए में।
कभी खाली हॉल में सालसा
कभी मेरे चश्मे में शरारत
कभी क़िताबों में नज़्में
तो कभी आईने के चेहरे
अब भी यादों में
टिमटिमा से जाते हैं।

तनहा से इस घर में
अब बिजली ही रौशन होती है
बेजान डंडे लाटुओं में।
मोमबत्तियों में यादें कहीं
पिघल के धुआँ न हो जाएँ।


Wednesday, July 24, 2013

साँझी भोर

भोर का आसमान आज
देर साँझ का सा लगता था,
कुछ वैसा ही
जैसा कल श्याम को देखा था
रात जागते कटी थी पूरी और
सुबह यूँ लगा था जैसे वक़्त
रात भर थम गया था-
थक के चलते-चलते शायद
कहीं सो गया था.
मैं घर से निकला था जब आज,
वक़्त ने भी तभी
आँखें खोली थी अपनी
और सुबह आज की
उसी साँझ सी लगी थी
जो कल
घर लौटने से पहले देखी थी.

Sunday, July 21, 2013

नई बात


कुछ अर्से से टटोल रहा हूँ 
ज़हन की संकरी गलियों को। 
कभी रख के भूल गया हूँ 
या छुपे बैठे हों कोनों में वो 
ख़याल जिन्हें शायद ज़ुबाँ
ढाल ले अल्फाज़ों में,
भले छोटी सी ही सही,
पर आज 
इक नई बात कहूँ तुमसे।

Wednesday, July 17, 2013

गोद

भीगा थका, बरसात में चलता घर पहुँचा 
नींद छाता लिए दरवाज़े पर खड़ी थी।
"थक गए होगे, आओ अपनी गोद में सुला दूँ।"

Wednesday, April 24, 2013

तस्वीर सा

इक तस्वीर सा देखा था तुम्हे,
झलक भर ही दिखी थी तुम।
और इक तस्वीर सी ही फिर
चली गई थी तुम, माज़ी के
उन खानों में जहाँ मीठी
खुशगवार यादें रखीं थीं।
कभी किसी पल का ग़र कोई
धक्का सा लगता तो
उन में से कुछ यादें सरक कर
आज में छिटक जातीं- जैसे
क़िताब में दबाई कोई
पुरानी तस्वीर हो।
ठीक वैसे ही माज़ी से मेरे
अचानक तस्वीर सी आ बैठी हो
मेरे सामने वाली टेबल पे-
चाय के गर्म प्याले के साथ अकेली,
एक वर्जिनिया वुल्फ का नॉवेल लिए।
मैं कल के मैच के बारे में पढ़ रहा था
मगर और उस पर गौर न होता था।
अखबार को मोड़ कर परे रखा
और तुम्हे बस देख ही रहा था के
तुम अपनी किताब और चाय लिए
मेरी टेबल पर आ बैठी।
तिर्छी नज़रों से मेरी सकपकाहट
पे मुस्कुराते पुछा-

"क्यों जनाब! वो तस्वीर याद है?" 

Sunday, April 14, 2013

गर्मियाँ


भाप सा पसीना,
सुराही में पानी।

तीन और महीने।



Tuesday, April 2, 2013

आखिरी

गुज़रती रात को थाम लिया था
अपने लिपटे हुए जिस्मों के बीच,
सबसे दूर छिपकर सावन की सीली,
अलसाई सी चाँदनी में।
भीगी घाँस की महक में
तेज़ साँसें घुल गईं थीं,
बदन वो ज़मीन से सब्ज़,
मटियाले से हो गए थे।
हथेलियाँ चिपक सी
उंगलियाँ साथ बुन सी गईं थीं,
आँखें बोझल, नम, छलक गईं थीं,
उदास वो चेहरे भिगोते हुए।

आखिरी रात थी वो उनकी,
बस, आखिरी कुछ लम्हे।


Wednesday, March 27, 2013

मिली

मेरी आँखों पे पट्टी बाँधे
अपने साथ खींच ले आई,
और बैठा दिया था तुमने
उस पुरानी सी कुर्सी पर।
वो कमरा था के आँगन,
कमरा सा ही लगा था
पर घर किसका था वो
देर तक जान नहीं पाया।
इतवार की सुबह थी और
शायद दस बज रहे थे,
आवाजें घरेलु इतवारों सी,
रेडियो पे फ़िल्मी गाने,
रसोई में छौंके की सर्राहट,
अखबार के पलटते पन्ने,
और पड़ोस के बच्चों का शोर।
शायद मेरा ही घर था, पर
नहीं, कुछ अलग सा था।
तुमने बिठाते वक़्त हौले से
अपनी ऊँगली मेरे होंठों पर रख,
हँसी दबाते कहा था-
"श्श! आवाज़ न करना, न हिलना!"
फिर हल्के से चूमके माथे को,
नटखट चूड़ियाँ खनकाती तुम,
खिलखिलाते हुए भाग गई थी।
खुद को अकेला समझ मैं,
पट्टी खोलने लगा तो मेरा,
हाथ झटकते एक बच्ची बोली,
"बदमाशी नहीं! मना है न?"
उस बच्ची ने यों कहा था के
माँ की बचपन की डाँट याद आ गई।
सोचते उलझते बस बैठा रहा,
ज़रा भी हिलता तो डाँट पड़ जाती।
चाय की खुशबु के बीच फिर,
एक साथ कई आवाजें आईं,
हँसी-ठहाकों पायल-चूड़ियों के बीच,
सरकते फर्नीचर और गिलास।
बच्ची ने मेरे कान में आ धमकाया-
"हिले या बोले तो अच्छा नहीं होगा!"
और आकर मेरी गोद में बैठ गई।
तुम जाने कहाँ चली गई थी?

"अरे! भई किसे बाँध रखा है?"
मेरे पसीने छूट गए-
आवाज़ तो पिताजी की थी।
"कोई नई शरारत लगती है।"
माँ भी!
"अरे ये कौन है छुटकी?"
बेड़ा गर्क, तुम्हारे बाबूजी!
मह बोल न पडूँ सोचके,
गोद बैठी छुटकी ने मेरे
मूँह पर हाथ रख दिया था।
"हे भगवान्! मिली! ओ मिली!"
रही सही कसर भी निकल गई,
तुम्हारी अम्मा जी भी आ गईं।

छुटकी खिलखिला रही थी,
पर मेरा मूँह नहीं छोड़ा था।
मोगरा और चम्पा की महक
और रेशमी साड़ी की आहट
के बीच सब चुप हो गए थे।
माँ पिताजी ने आशीर्वाद दीए
और अम्मा बाबूजी, चौंक के
सिवाए 'मिली' और 'साड़ी' के
और कुछ न कह सके।
छुटकी मेरी गोद से उतर गई
और तुमने मेरे पीछे से आकर
मेरी पट्टी खोल दी और कहा-
"आँखें मत खोलना अभी"
फिर भाग कर मेरे सामने आई
"हाँ, अब खोलो।"
हमेशा जीन्स-टॉप पहनने वाली,
आज अचानक रेशमी साड़ी में लिपटी,
बाल बनाए, फूलों से सजाए,
आँखों में काजल लगाए,
पलकें झुकाए शर्माती हुई सी
सामने खड़ी थी।
लफ्ज़ क्या,
मेरी आवाज़ ही गुम हो गई थी।
इस से पहले की कोई कुछ कहता,
तुमने मेरी आँखों में देखा और
इक शरारती शर्म से मुस्कुराते हुए पुछा,

"मुझ से शादी करोगे?"






Tuesday, March 26, 2013

शब्द

सूरज सी चमकती,
अमावस सी काली,

तुम्हारी बोलती आँखें।






Monday, March 25, 2013

बिन मौसम

इक श्याम नए दो बादल बने,
आँख खुलते ही उनकी नज़र,
उगते पूरे चाँद पर पड़ी, बस
मुहब्बत हो गई।
आसमाँ के अपने अपने कोनों से
वे दोनों बेक़ाबू से दौड़ पड़े,
के आग़ोश में ले लें अपने महबूब को।
निगाहें सिर्फ़ मंज़िल पर थीं,
इक दूजे को आमने-सामने न देखा
और टकरा गए।

यहाँ ज़मीन पर सब हैरान हुए
के अचानक ये बिन मौसम के
बिजली बारिश क्यों हो गई?

Sunday, March 17, 2013

मैं पत्थर क्यों?

"पत्थर की हो गई है,
एक आँसू ही बहा दे।"
यही कहा करते थे सब,
कोई तरस खाके तो 
कोई ताना मारते कहता था।

ये मगर कोई नहीं जानता था 
के उसकी आँखें 
हमेशा से बाँझ न थी।
पहले तो ख़ुशी में भी 
खूब छलक पडतीं थीं।

इक रोज़ वो चला गया।
क्यों, कहाँ- पता नहीं;
न कोई बात, न चिट्ठी 
न अलविदा ही-
बस चला गया।

समझ कोशिशों से दूर 
और सुकून नाम को भी नहीं।
सब्र, इख्तियार, भरोसा 
एक-एक कर 
फिकरों, तंज़ ओ तानों  
और ज़माने की खोखली कहानियों 
की ठोकर में सब ढेह गए और 
आँखों के बाँध कुछ यूँ टूटे 
के सब बह के बंजर छूट गया।

हाँ,
वो पत्थर ही हो गई है,
बाहर से वो पत्थर ही हो गयी है।
अंतर उसका अब 
एक उफान पे है।

"बिना सोचे, बिना कहे वो गया,
क्या उसके दिल ने उसे नहीं रोका
बेदर्द वो, बेरहम वो, बेजज़्बा वो 
तो मैं पत्थर क्यों?
वो प्यार, वो वक़्त,
वो यादें, वो हँसी सब 
उसने भुलाए
तो मैं पत्थर क्यों?
मैंने तो बस प्यार किया था,
अपनी हँसी बाँटी थी,
कुछ माँगा नहीं था।
फिर ज़िल्लत मुझे क्यों मिले? 
हाँ मेरी आँखे बाँझ हो गईं हैं,
पर सिर्फ उसके लिए।
एक कतरा भी उसपे 
अब बर्बाद न होगा।
जो पत्थर का लोगों ने
मुझे बना दिया है उसे 
तराश के अब बहार 
मैं नई सी बन निकलूँगी।
ज़माने का पुराना शीशा तोड़ 
खुद का इक नया बनवाया है,
अपनी नई काया को 
अब बस उसी में देखूँगी।"

Thursday, March 14, 2013

बिन्दी


इक बर्फ के गर्म टुकड़े सा 
चाँद रात को टपक रहा था,
इक बूँद मैंने भी बटोर ली है,
आओ तुम्हारे माथे पर सजा दूँ।

Monday, March 11, 2013

सॉरी

वो बरसाती हवा जो झोंके से छूँ गयी काँधे को कल श्याम 

तुम उतर रही थी सीढ़ियाँ अपने घर की जब उस मई की रोज़ 
और मैं अखबार लौटाने तुम्हारे पापा को ऊपर आ रहा था; 
भीगी जुल्फें अपनी झटकी थी तुमने, हिन्ना सी महकती 
कुछ छींटे गिरी थीं काँधे पे मेरे जिन्हें लहराके गुज़रते 
तुम्हारे उस पीले दुप्पटे ने सहलाके पोंछ लिया था।
मैं पलटा और तुम्हे भी पलटते देखा तभी और दोनों ही ने 
एक साथ ही कहा था- "सॉरी! "

वो बरसाती हवा जो झोंके से छूँ गयी काँधे को कल श्याम 
याद दिला गयी वो हिन्ना सी महकती उस रोज़ की सॉरी।

Saturday, March 2, 2013

पत्ता

आँखें मूँदे, 
होंठों पर चुप्पी साधे, 
हाथ बाजू में बाँधे,
खुद को एक पत्ता समझे मैं, 
चौराहे सी आँधी में खड़ा हूँ।
कब कोई हवा किस दिशा की 
पकड़े अपने साथ ले जाये,
 छोड़ दे कहीं और।
अब बर्दाश्त नहीं होता 
यहाँ बेवजह जुड़े रहना 
इस ठहरी सी ज़िन्दगी से।

मुझे सुन लो

चंद लफ़्ज़ों की कहानी हूँ मैं 
मुझे दास्ताँ बनने का शौक़ नहीं।
चंद मिन्टों की महमाँ हूँ में 
मुझे लम्बी उम्र का ख़्वाब नहीं।

बस ज़रा सा ठहर जाओ,
मुझे सुन लो।

Saturday, February 23, 2013

सिक्का

इक आखिरी सिक्का बचा था जेब में।
किस्मत परखने को अपनी, उसे
आसमान में उछाल दिया।

अपनी भी क्या किस्मत है देखिये,
जेबका आखिरी सिक्का भी आसमान पे
चिपक के आज खुद को चाँद कहता है।                      

Thursday, February 7, 2013

जाने कब?

कुछ रोज़ से यूँ लग रहा है
मैं लगातार एक सीढ़ी चढ़ रहा हूँ,
एक ऐसी सीढ़ी जिसका छोर
कभी गहरे अँधेरे
कभी चुंधियाते उजाले में
गुम सा रहता है।
कभी ऊपर उठने का
झाँसा सा हो जाता है,
कभी यूँ लगता है वो सीढ़ी
मैं ज्यूँ-ज्यूँ चढ़ता जाता हूँ
त्यूँ-त्यूँ नीचे उतरती जाती है।
न जाने कब ऊपर पहुँचूँगा
क्या पता पहुँचूँ भी के नहीं,
या कुछ है भी ऊपर
नहीं पता।
किसी मशीन से,
क़दम आप ही चलते जा रहे हैं-
न सोच के बस में
न ही जज़्बातों के काबू में।
ऊबने लगा हूँ,
थकने लगा हूँ अब
इस मशीनी, बेजज़्बा
अन्धी चढ़ाई से।
जाने कब पहुँचूँगा?

जाने कब?


Monday, February 4, 2013

टाइम क्या हुआ?

मुझे याद नहीं कब
मुझे यद् नहीं जब
मुझे याद नहीं तब
मुझे याद नहीं अब

के आप से पहली बार बात हुई थी।
जो याद है वो ये के,
वहाँ आप थीं,
वहीँ मैं था
भरी भीड़ में अकेला
और आपने
काँधे पे थपकी देकर
पीछे से पुछा था-
"मुआफ़ किजेगा, टाइम क्या हुआ?"


Friday, February 1, 2013

संतरे की डली सा

कच्ची रात का उगता
संतरे की डली सा वो
आधा चाँद।
आओ तुम्हे काँधों पे उठा लूँ
तुम चुपके से चुरा लेना उसे
रात की हथेली से।
आधी पहले तुम खा लेना
बाकी आधी मैं खिला दूँगा।
उठा लूँगा काँधों पे एक बार फिर,
स्याह रात के आसमाँ के सामने
तुम्हारा ये मुस्कुराता चेहरा
के संतरे की डली सा वो
आधा चाँद भी
पूरा हुआ नज़र आएगा।

Wednesday, January 30, 2013

परिचय


उनसे कदाचित परिचित हैं हम,
परन्तु जब परिचित के प्रिय,
परिचित से परिचय करवाएं,
तो परिचित नव परिचित हो जाता है.

कम कहा करता हूँ

वो अक्सर कहती हैं,
अक्सर क्या, हमेशा कहती हैं
के मैं बड़ा कम कहता हूँ।

पर लहज़ा शिकायती नहीं होता
उल्टे बड़ी दिल्लगी से कहती हैं-
"भई  ये हमारे, बड़ा ही कम कहते हैं।"
कोई ग़र वजह पूछ ले तो
जवाब उनके मूड के चलते
कभी कुछ, कभी कुछ होता है।

शरारत सूझ रही हो तो-
"मैं कुछ कहने दूँ , तब न।"
जो चिड़चिड़ी सी हो तो-
"ये न समझना के मैं कहने नहीं देती।"
कुछ उदास सी हो ग़र-
"क्या पता, कभी कुछ कहा नहीं।"
और खुद न ख्वास्ता जो ग़ुस्से में हों-
"न कहें तो न सही, मेरी बला से।"

खैर, ये तमाम जवादात तो
वो दिया करती थी, औरों को।
मैंने अक्सर ग़ोर किया था के
ये सवाल वो खुद भी
मुझसे करना चाहती थी।
और आख़िर आज कर ही लिया-
"अब बताओ भी, इतना कम क्यों कहते हो?"

ज़रा मुस्कुराते, उन पूछती आँखों में
देखते हुए मैंने कहा-
"आपके वो जवाब जो सुनने होते हैं,
बस, इसीलिए कम कहा करता हूँ।"

Thursday, January 24, 2013

पृथक

छोर पे स्थित तटस्थ निशब्द स्तब्ध सा 
मैंने अपने प्रतिबिम्ब को मुझसे पृथक हो 
निरंतर निर्मम प्रवाह में बह जाते देखा।
ठीक उसी रूप से जैसे अपनी छाया को 
प्रातः उषाकिरण में रिक्त धरा पटल से 
निरंतर निर्मम प्रवाह में उड़ जाते देखा।
अब केवल इस नश्वर शरीर को ढोए 
थकी आत्मा जीवन छोर पर खड़ी है।
अब जाने कब उसे शरीर से पृथक हो 
ये छोर छोड़े अनंत में विलीन देखूंगा।

Saturday, January 19, 2013

सवाल

जिस्म कैद है इस रूह के शिकंजे में,
वो बेदर्द इसे तिल-तिल घोंट,
न मरने देती है न मारती ही है।
जाने क्या दुशमनी निकाल रही है।
कभी यूँ पँजे कसती है गर्दन पर
के जिस्म तड़प के दुआ करता है-
बस अब साँस छूट ही जाए।

रूह चालसाज़ मगर बाँध लेती है
जिस्म को आखरी साँस से।
बौखलाई आँखों से देख रहा है जिस्म-
वक़्त पे घिस-घिस के रूह
अपने नाखून तेज़ कर रही है।
आज फिर शायद सोच की तहें
कुरेद-कुरेद कर यादें उधाड़ेगी।
उधेड़ ही दे सभी एहसास और
डाल दे उस धौंकते अलाव में
के हमेशा के लिए राख हो जाएँ वो,
जिस्म महसूस न कर पाए कुछ और।

रूह मगर सर्द हैवानियत से मुस्कुराते
हर उधड़े एहसास, हर कुरेदी याद को
अलाव की लाल झुंझलाती रौशनी में
एक एक कर कतार में, उस कांपते
जिस्म के सामने नंगा सजाती रहती है।
वो आँखे मूंदे भी तो राहत नहीं मिलती;
वो धधकता मंज़र बंद पलकों के पार
खुद ब खुद उतर आता था।

अपने पंजों की हर गिरफ़्त, हर घोंट,
अपनी नाखूनों की हर चोट, उन
हैवानी होंठों की हर सर्द मुस्कान के बीच
जिस्म की हर पूछती चीख के बीच
रूह अब तक ख़ामोश थी।

जिस्म के हर सवाल, हर चीख,
हर दुहाई का जवाब रूह अब तक
सिर्फ एक ठंडी नज़र से देती थी।
आखरी साँस के फंदे से लटकते
जिस्म को रूह ने फिर देर तक घूरा
और उसके सभी सवालों के जवाब में
सिर्फ एक सवाल किया -

क्यों जनाब,
आईना देखते इतनी तकलीफ होती है?





Friday, January 4, 2013

रास्तों के ख़याल

पैदल चलने का बड़ा शौक़
हुआ करता था कभी।
कहने सुनने को तो ख़ैर,
अब भी है।
एक अर्सा  हो गया मगर
पैदल सैर को गए हुए।
ये शौक़ कोई कसरती नहीं था,
बल्कि ज़हनी था।

तड़के सुबह,
पैदल रास्ते किसी राग के
बड़े ख़याल से लगते थे।
एक एक सुर की तरह
हर मोड़ हर नुक्कड़
अपनी अपनी पहचान लिए
एक एक कर मुखातिब होता था।

कोई मोड़ कहीं भा गया तो
सुरों की कई पेंचें लड़ जातीं।
किसी नुक्कड़ पर कभी,
मद्धम, पंचम से दो बातें हो जातीं।
किसी लय से चढ़ते उतरते
घुमते फिरते पैदल रास्ते पर
ज़िन्दगी अपने ही तालों पर थिरकती-
कहीं इस थाप, कहीं उस थाप।

चढ़ते सूरज के साथ जब मैं
वापसी को पलटता था,
वही पैदल रास्ता अब
उस राग के छोटे ख़याल सा जान पड़ता।
बढ़ती चहल-पहल के साथ साथ
सुर, ताल, ले सब द्रुत गति के होने लगते।
मोड़ों पर सुर तेज़ तानों में गुज़रते,
और नुक्कड़ों पर आलाप दौड़ते दीखते।

इन सब से होते गुज़रते ज्यूँ
अपने दरवाज़े तक पहुँचता,
चिटकनी की आवाज़ पर
तडके सुबह के उस
पैदल रास्ते के ख़याल का,
आखरी सुर पूरा सठीक बैठता।

पैदल चलने का शौक़
अब भी है,
उन तडके सुबह के रास्तों के ख़याल
अब भी हैं।