Wednesday, April 24, 2013

तस्वीर सा

इक तस्वीर सा देखा था तुम्हे,
झलक भर ही दिखी थी तुम।
और इक तस्वीर सी ही फिर
चली गई थी तुम, माज़ी के
उन खानों में जहाँ मीठी
खुशगवार यादें रखीं थीं।
कभी किसी पल का ग़र कोई
धक्का सा लगता तो
उन में से कुछ यादें सरक कर
आज में छिटक जातीं- जैसे
क़िताब में दबाई कोई
पुरानी तस्वीर हो।
ठीक वैसे ही माज़ी से मेरे
अचानक तस्वीर सी आ बैठी हो
मेरे सामने वाली टेबल पे-
चाय के गर्म प्याले के साथ अकेली,
एक वर्जिनिया वुल्फ का नॉवेल लिए।
मैं कल के मैच के बारे में पढ़ रहा था
मगर और उस पर गौर न होता था।
अखबार को मोड़ कर परे रखा
और तुम्हे बस देख ही रहा था के
तुम अपनी किताब और चाय लिए
मेरी टेबल पर आ बैठी।
तिर्छी नज़रों से मेरी सकपकाहट
पे मुस्कुराते पुछा-

"क्यों जनाब! वो तस्वीर याद है?" 

3 comments: