Saturday, December 31, 2011

पता न चला

जो गुज़रा, ज्यों गुज़रा, कब गुज़रा
वो वक़्त ही था, सो पता न चला.
चंद लम्हे यहाँ-वहाँ कुछ ठहरे हैं,
बाकी वक़्त था, तो पता न चला.
उन लम्हों को संभाल कहीं रखा था,
वो उस वक़्त था, अब पता न चला.
एक-एक आज ढूँढा सो मिल रहे हैं,
यूँ गुज़रा वक़्त है, कब पता न चला.

Friday, December 30, 2011

दरख़्त पुराना

इक दरख़्त पुराना हूँ
मेरे पत्ते भी बूढ़े से हैं.
कड़ी धुप में खड़ा हूँ,
मेरी छाओं में लोग,
मगर अब भी बैठते हैं.

Thursday, December 29, 2011

साँस ज़िन्दगी की

ज़िन्दगी ने अपने लिए
एक कोना ढूँढ लिया था
उस अँधेरे से कमरे में.
मुझे पता चला जब तो
मैं भी दीवारों के साथ 
अँधेरे में थप-थपाते हुए
वो कोना खोजने लगा.
श्याम होने को आई है
कमरे के चौथे कोने की
तरफ बढ़ते बढ़ते मुझे
रौशनी की भीनी सी
खुशबू के साथ, मद्धम
हवा की सरसराहट में
एक पत्ता हाथों को
हलके से छूंके उड़ गया.

अर्से बाद बंद कमरे की
घुटन छोड़, आज एक
लम्बी साँस ज़िन्दगी की.


Wednesday, December 28, 2011

देखता हूँ

इस किनारे पे खड़ा  मैं,
बस उस पार देखता हूँ.
पार किनारा दीखता नहीं,
बस मझधार देखता हूँ.
बस उतर पड़ा हूँ भंवर में,
पहुँच मझधार देखता हूँ.
आगे अब क्या होगा जाने
जो होगा चलो, देखता हूँ.

Tuesday, December 27, 2011

वक़्त बूढ़ा

बूढ़े होते वक़्त ने आख़िर
आज कलम खुद उठा ली है.
जो दास्तानें इन्सां लिखता था,
वो वक़्त अब खुद ही लिखेगा.
"आख़िर इन्सां का क्या भरोसा",
 वक़्त खाँसते हुए कहता है,
"वो दास्ताँ नहीं, सिर्फ अपनी
सहूलियत ही लिखता है."

Monday, December 26, 2011

पैमाना

ज़िन्दगी डूबती गयी मय में कतरा-कतरा,
इतना के वो बेहोश ही होश में होता है.
कोई टोके तो रूखी हँसी में जवाब देता है-
"अब क्या टोकते हो यारों, ये घूँट-घूँट भरता
पैमाना अब बस छलकने को ही है."

Sunday, December 25, 2011

अपना घर, अपना शहर

माँ-बाप के पैर छूँ निकला,
यहाँ सबको नमस्ते कह रहा हूँ.
अपने घर से आज मैं,
अपने शहर को लौट आया हूँ.


Saturday, December 24, 2011

घर

अपने घर से बाहर रहते
अब दस साल हो गए हैं.
साल में लगभग दो बार
हफ्ते दस दिन घूम आता हूँ.
हर बार मगर आखरी दिन
घर से जाने का मन नहीं करता.

Friday, December 23, 2011

ठंड

ये गुज़रती खुश्क सी श्याम
चाँद से ठंड बटोरके लाई है.
जाते-जाते कान में कहती है
"चाय पी लो, ज़रा गर्म हो जाओगे."

Thursday, December 22, 2011

बेतुका सा पन्ना

मैं आज-कल जहाँ रहा करता हूँ,
उस एक कमरे को मैं घर कहता हूँ.
दो दरवाज़े हैं, दो खिड़कियाँ भी
और सीढ़ियाँ जो छत को जाती हैं.
एक गुसलखाना है जो बरसात में
टपकता है, सो सफाई का पानी अक्सर
उन दिनों खुद ही भर जाया करता है.
एक चटाई पे गद्दा मेरा बिस्तर है
जो ढेरों किताबों और कुछ कपड़ों से
हमेशा ही घिरा रहता है.
उस ढेर में मेरी एक डाइरी भी है जिस में
मैं अपने बेतुके ख़याल लिखा करता हूँ.
सो जो आप अभी पढ़ रहे हैं वो भी
उसी देरी का एक बेतुका सा पन्ना है.
अब भले अपने कमरे पे कोई लिखता है,
मैंने भी खैर इसलिए लिखा है क्यों कि-
यूँ लिखना बिलकुल बेतुका होता है.

Tuesday, December 20, 2011

पुरानी क़िताब

पुरानी उस किताब पर  
जमी धुल की परतों से 
माज़ी की महक आती है। 

उँगलियों से पन्ने पलटते
ज़बान पे गुज़रे वक़्त का
हल्का ज़ायका आता है। 

सफहों की फड़-फड़ाती 
आवाज़ में, पुराने घर का
आँगन सुनाई देता है। 

फीके लाल सूती कपड़े के 
हार्ड-बाउंड कवर में उसकी,
उम्र का एहसास होता है। 

ज़र्द पड़े पन्नों पे उभरी  
काली सियाही की छाप
पर और जवाँ लगती है। 

एक अरसे बाद आज मैंने
क़िताब उठाई है, अब और
रखने का मन नहीं होता है। 

Monday, December 19, 2011

ग़लत वक़्त

मुझे आज फिर ग़लत वक़्त पे नींद आ रही है,
सोचता हूँ सो ही जाऊं के रात का इंतज़ार करूँ.

Sunday, December 18, 2011

कश

इक काश का कश लगाके बैठा हूँ,
उड़ते धूंए में मुम्किनात ढूँढने को.

Saturday, December 17, 2011

भूगोल

बात शायद मेरी पाँचवी जमात की है
मैं भूगोल में कमज़ोर हुआ करता था.
अमरीका के ऊँचे बर्फीले पहाड़ मैं,
रूस के मैदान में बताया करता था.

ये कभी मेरी समझ में नहीं आता था,
ये क्यों नदी और वो क्यों नाला था.
मैं अक्सर सोच में पड़ जाता था,
कहीं बाढ़, कहीं जल सूखके काला था.

बचपन में दादी-नानी कहतीं थीं,
ये भू गोल भगवान् ने बनाया है.
अब मैं सोचता हूँ के ये भूगोल क्या,
भगवान् को किस ने पढ़ाया है?

क़त्ल

इक क़त्ल हो गया है कल रात,
लाश सुबह नुक्कड़ पर मिली है।
ख़्वाब एक नई आँखें ढूंढ रहा था,
चंद सच्चाइओं ने उसे मार डाला। 

Friday, December 16, 2011

ज़िन्दा

आज मैं कहता हूँ, कभी अपने मन की कहा करता था.
चला करता हूँ, कभी मैं अपने कदम चला करता था.
काम करता हूँ, कभी अपने मर्ज़ी की किया करता था.
सबकी सुनता हूँ, कभी अपनी भी सुन लिया करता था.

थक गया हूँ, साँस कभी खुद के लिए लिया करता था.
आज मैं ज़िन्दा ज़रूर हूँ, पर कभी मैं जिया करता था.

पल भर

लोग 'पल भर' की बात कहते हैं,
मैं भी एक पल हाथों में लिए हूँ.
पिछले कुछ पलों से सोच रहा हूँ,
खली ये पल मैं किस तरह भरूँ.

छतरी भर छाँओं

क्यों इस तरह गुस्से में, अलग धुप में चलते हो,
मैं छतरी भर छाँओं  लाया हूँ, उसका क्या होगा?

Thursday, December 15, 2011

हसरत

बड़ी पुरानी एक हसरत आज
कुछ हरकत पे उतर आई है.
जाके ज़रा माँ से कहूँ-
"कान मरोड़ के थोड़ा डाँट दे."

बात का स्वाद

इक बात का टुकडा चखके, आपने तश्तरी पे रख छोड़ी थी.
देख के मैंने भी ज़रा चखी, तो जाना यूँ क्यों छोड़ रखी थी.
वो बात ठीक से पकी नहीं थी, उसे ज़रा सी और आँच दें.
मैं चंद लफ्ज़ निकालूं, थोड़े आप डालो तो बात का स्वाद बढ़े.

Wednesday, December 14, 2011

वक़्त

पथरीले वक़्त से टूट टूट के
लम्हों की रेत बिखर रही है.

चाहे जितनी कोशिश कर लें
मुट्ठी में रेत पर, नहीं रूकती.

बस चंद कतरे कभी कभी
हथेली पे चिपक से जाते हैं.

इन यादों के कतरों को मैं
सहेज, जोड़ लिया करता हूँ.

कतरा कतरा जुड़ एक दिन
शायद वो एक वक़्त बन जाएँ.

मेरा चाँद

"अमा! चाँद पे आधी दुनिया लिखती है,
तुम क्या ऐसा अलग लिख लोगे उस पे?"

अब वही पुराना या कुछ अलेहदा लिखूं,
मेरा चाँद मुझे रोज़ अलग ही देखता है.

रुख्सत

चाहते नहीं हैं हम के वास्ता रखें
कोई उनके रुख्सत के रास्ते से.
वो ग़र खुद ही इजाज़त माँगें तो,
कैसे रोकें उन्हें हमें छोड़ जाने से?

Tuesday, December 13, 2011

खामख्वा की कट्टीयाँ

हल्की छेड़ छाड़  का जो कभी मन करे,
तो पहले ज़रा रुक सोच लेता हूँ,
और कभी गर यूँ ही कुछ कह दिया,
तो अचानक रुक फिर सोचने लगता हूँ,
के ये सुन वो मुझपर मेहेरबां होकर, 
कहीं दे न दें कुछ खामख्वा की कट्टीयाँ !


Wednesday, December 7, 2011

नज़्में

अर्से से एक कहानी है मन में
रोज़ सोचता हूँ, आज लिख लूं.
पर नज़्मों में कुछ बात है जो,
हमेशा मेरा मन रिझा लेती हैं. 

थमी साँस

एक अंग्रेजी फिल्म की लाइन थी-

"ज़िन्दगी, आपने कितनी साँस ली
उस से नहीं गिनी जाती, बल्कि
उन लम्हों से जिन में आपकी साँसे,
खुद थम जाएँ."

कल श्याम कुछ ऐसा ही देखा मैंने.
हरे लॉन मैं कई सौ खुश चेहरे,
दोस्तों के और उनके परिवारों के
और इन सब के बीच, हमारे
पडोसी मुल्क से आए मेहमां-
नन्हे-नन्हे लाखों परिंदे जो
ढलते सूरज को बिदाई देते हुए
एक साथ पेड़ों से उठ उड़ पड़े.
यूँ लगा जैसे एक बड़े बादल के
सैकड़ों पर निकल आए हों और
वो उड़के उन हसते चेहरों के साथ
उनकी खुशियाँ बाँटने आया हो.
क्या पता किसी और ने भी कुछ
ऐसा महसूस किया या नहीं, पर
उस पल, पल भर के लिए,
मेरी साँस थम सी गयी और मुझे
उन परिंदों के चेहरे हसते हुए और
वो हसते चेहरे चहचहाते नज़र आए.




Monday, December 5, 2011

घर वाली गाड़ी

मूंग-तुअर की दल में
माँ की डांट का तड़का,
गर्म गोल फुल्कों पर
बहन के तानों की सेंक.
सब्ज़ियों की भाजी में
बाबा के मज़ाक का स्वाद.
और गिलास भर पानी संग
भाई की शांत मुस्कुराहट.
बस कुछ और घंटे बचे हैं
घर वाली गाड़ी पकड़ने में.

Sunday, December 4, 2011

सारा आसमां

खुले मैदान मैं
हाथ ऊपर उठाए,
खड़े हो जाओ
तो लगता है के,
आसमां सारा
उठा लिया है
अपने हाथों में.
सो, जब भी कभी
ज़िन्दगी बोझ सी
लगने लगती है,
तो चला जाता हूँ
खुले मैदान में, के
अपने हाथों में
कुछ देर,
सारा आसमां उठा लूँ.

Saturday, December 3, 2011

चंद लम्हे

मटकी भर वक़्त लिए अपना
आप आज दूर जाने वाले हो.
चंद लम्हे जो छलके-टपके हैं ,
मैं ज़रा उन्हें बटोर लेता हूँ.

डिबिया

चमकीली पन्नी में लिपटी इक डिबिया
आज सुबह मेरी मेज़ पर रखी हुई मिली.
किसने रखी सोचते हुए डिबिया को खोला,
अन्दर आपके लिखे  पर्चे ने कहा "ख़ुशी!".

Thursday, December 1, 2011

गुज़रा वक़्त

वक़्त आज का अक्सर, गुज़र जाने के बाद अच्छा लगता है.
जैसे अपना बचपन हमें, अपनी जवानी में अच्छा लगता है.

Wednesday, November 30, 2011

कुछ हवा लगे

कागज़ अलमारी में पड़े पुराने हो गए हैं.
सुफैद अँधेरे में घुटके ज़र्द सा पड़ गया है.
वो कहते हैं, के भले लिखो न सही हम पे
मोड़ फिरकी ही बना लो के कुछ हवा लगे.

Tuesday, November 29, 2011

बैर

क्यों बैर करूँ मैं तुझसे, तू कौन, जो मैं न हूँ.
पर बैर करूँ मैं तुझसे, जब तू ना, तो मैं ना हूँ.

Monday, November 28, 2011

कैद ख्वाब

इक कैद ख्वाब था दिल में मेरे.
रोज़ भागने की कोशिश करता.
रात नींद के अँधेरे में आखिर,
कल ख्वाब वो आज़ाद हो गया.

Sunday, November 27, 2011

बेवक्ती नींद

पिछले कुछ इतवारों जैसे
इस इतवार की शुरुआत भी
लगभग दोपहर से हुई है.
मेरी बेवक्ती नींद लेकिन
कुछ और सोना चाहती है.
इसके भी बड़े नखरे हैं.
रात देर से आना और
देर सुबह तक न जाना.
बिलकुल उस माशूका सी
जिससे न निभाया जाये
न जिसको छोड़ा ही जाये.
कमबख्त कुछ यूँ बिगड़ी है
लाख़ सुधारते नहीं सुधरती.
अब जो ग़लती की है सो
भुगतना भी खुद ही को है.
पर इतवार है आज आखिर,
तो इसमें हर्ज़ ही क्या है के
वो कुछ और सोना चाहती है.


Saturday, November 26, 2011

आज छुट्टी है

आज भूक कुछ जल्दी लगी है
सुबह नाश्ता करना भूल गया.
देर हो गई थी दफ्तर के लिए
पर आज छुट्टी है भूल गया.

Friday, November 25, 2011

जाड़े

शुरूआती जाड़ों की सर्द शामें हैं
गर्म कपड़ों को जगाने का वक़्त है.
एक आलसी सा दिन और बीता
अब घर को जाने का वक़्त है.


Thursday, November 24, 2011

झूमर वाला बंद कमरा

चलो चंद बातें करें
बैठ चाँद के नीचे,
काँच के झूमर वाले
बंद कमरे के पीछे।

ज़रा तुक्के लगाएँ
के कमरे में क्या है,
झूमर तो सुना है
क्या कुछ और नया है?

कहते हैं वो कमरा कभी
घर का मेहमानखाना था,
कभी एक नवाब पधारे थे
झूमर का तब से लगाना था।

मखमली कालीन हों,
परदे जैसे, रेशम के थान
शायद चाँदी का इक टी-सेट,
और पीतल का पानदान।

बस एक ही रात हुई थी
उन नवाब को रुके वहाँ
सुबह बंद कमरे ही से वो
जाने गायब हुए थे कहाँ।

हवेली की उम्र बहुत थी,
बात भी पुरानी थी मगर
नवाब का आज तक भी
न ठिकाना, न कोई खबर।

जाने क्यों वो कमरा
आज भी बंद रहता है.
कमरा मनहूस है, ऐसा
रामू काका कहता है।

इसमें कितना सही और
जाने कितनी कल्पना है
क्या इक काला सच या
बस लोगों का बचपना है।

अब खैर, वो जो भी है सो है,
आओ हम बैठें चाँद के नीचे
और चंद बातें करें काँच के उस
झूमर वाले बंद कमरे के पीछे।


Wednesday, November 23, 2011

क्यों सोते हैं?

खुली आँख के सपने
कहते हैं सच होते हैं.
गर ये बात सच है,
तो लोग क्यों सोते हैं?

Tuesday, November 22, 2011

आह

आह उठते उठते दिल से
अचानक क्यों रुक सी गई.
क्या पता, शायद आपके
आमद की खबर मिल गई.

अब जो दब गयी है वो
तो कभी निकलेगी ज़रूर.
जो आपके ग़म में ठंडी थी,
आह वो साँस बनेगी ज़रूर.

बीज

एक बीज छाँव का बोया है
जो एक दिन एक पेड़ बनेगा.
आज धुप में जो तू सोया है
फल छाँव के कल तू चखेगा.

Sunday, November 20, 2011

कहें

आप अपनी बात किसी को कहें
फिर वो अपनी बात किसी से कहें.
बात तो आखिर आपस की ही है,
क्यों  न आप उनसे, वो आपसे कहें.

Saturday, November 19, 2011

शिकारा

रात की काली घनी ज़ुल्फों में
अनगिनत से हीरे जड़े हुए थे।
ज़मीन पर इक शबनमी झील
वक़्त के साथ थम सी गई थी।
आसमानी चादर की सिलवटें
झील के रेशम पर पड़ रहीं थी।
एक शिकारा झील पर हौले से
चुप-चाप खुद ही बढ़ा जाता था।
दो जिस्म उस पर यूँ सवार थे के
बिजली-आन्धी की आवाज़ भी
उन दो साँसों को न छेड़ पातीं।
वो नज़रें एक दूजे में यूँ गुम के
कोई तूफाँ भी उन्हें टोक न पाता।
हथेलियाँ भी कुछ ऐसी बंधीं हुईं
के शायद क़यामत में भी न छूटें।
उन घुलती रूहों की सिकी आँहों में
समां पिघल-पिघल सा जा रहा था।
उन धड़कनों की ज़िंदा मौज पर झूम
ज़मीन भी उछल फ़लक चूमने लगी थी।
और इस तिलिस्मी कायनात के बीच
झील पे तैरता वो शिकारा, उस रुके
वक्त की उफ़क़ में गुम हुआ जा रहा था।


Friday, November 18, 2011

बेवजह

आदत क्यों नहीं पड़ती कुछ चीज़ों की कभी,
जब के बेवजह ही कुछ बातें दोहराते रहते हैं.

Thursday, November 17, 2011

पत्ते

लगभग जाड़ों सी
पतझड़ की सुबह.
टहलते पैरों तले
सूखे ओसीले पत्ते,
चरमराते कहते हैं.

"यूँ नन्गे पाँव अब
और न टहला कीजे.
मौसम बदल रहा है,
सर्दी लग जाएगी."


Wednesday, November 16, 2011

बात ये

दिन आज का ये उन दिनों सा है
जब सोच काम से मुकर जाती है.
क्या लिखूं कुछ सूझ नहीं रहा है
चलो, बात ये, यहीं छोड़ी जाती है.

Tuesday, November 15, 2011

अक्सर

मैं जो अक्सर कहा करता हूँ
भूल जाया करता हूँ, अक्सर.
याद रखने की कोशिश में भी
अक्सर नाकाम रहा करता हूँ.

यूँ भूलते रहने में भी तो
अक्सर, मज़ा आया करता है.

Monday, November 14, 2011

रात का चूल्हा

रात के चूल्हे में कल
नींद सारी जलती रही.
काँच से ठन्डे धुंएँ में
मैं जागे काँपता  रहा.

जगा हूँ जब तो सोचा
के कुछ ख़याल पका लूं.
तपिश कुछ यूँ थी लेकिन
जो डाला वो जलता गया.

कोयला बने उन ख़यालों की
सर्द राख ठन्डे धुंएँ संग उठी.
रात के चूल्हे में जलती नींद
ताकते मैं काँपते जागता रहा.

Sunday, November 13, 2011

जाने कौन था

वो जाने कौन था जो आकर
ग़म कुछ ज़रा कम कर गया.
गया तो, एक सूखा आँसू भी
यादों की मिट्टी नम कर गया.

उस मिट्टी से जो खुशबु उठे वो
आहें और गहरी कर देती है.
जो चौखट पीछे छोड़ गया  वो
निगाहें वहीँ ठहरी कर देती है.

निगाहें भी ठहर-ठहर अब
कुछ पथराने सी लगी हैं.
सच्चाईयां मानने को सोच भी
कुछ कतराने सी लगी है.

कहीं आ ही जाए, इंतज़ार में
कुछ और किया नहीं जाता.
इक ग़लत या खुश फहमी है
और फैसला लिया नहीं जाता.

Saturday, November 12, 2011

निकाह

सज-संवर रेशम-पोश
एक ग़ज़ल चली है,
उसकी नज़्म के निकाह
की महफ़िल सजी है.

Friday, November 11, 2011

कल की बात

कबसे बैठा हूँ मेज़ पर
डायरी सामने खुली पड़ी है
पन्ना दो साल पुराना है
पर बात जो वो कहता है
कल ही की तो लगती है.
वो कहता है के तुम अब
मुझसे और न मिलोगे, तुम
मुझसे और कुछ कहोगे नहीं
न और हँसोगे मुझ पर और
न कोरे गुस्से से डाँटा करोगे.
रह-रह के यूँ लगता है बस
अब चाय की प्याली लिए
कन्धे पे हाथ रख कहोगी-
"चाय और गरम नहीं करुँगी!"

हाँ, तुम्हे गुज़रे,
आज पूरे दो साल हो गए.
पर बात अब भी
वो कल ही की लगती है.

Thursday, November 10, 2011

अकेला

एक बड़े मैदान में खड़ा अकेला
एक पतला सा पेड़ सोच रहा है
कोई दोस्त मेरा कुर्सी बना कोई
दरवाज़ा, कोई कागज़, कोई बना
था घर किसीका और कोई जल
चिता में, कभी चूल्हे में राख हुआ.
अब, मैं अकेला बचा, खड़ा यहाँ
अक्सर अपना अंजाम सोचता हूँ.

Wednesday, November 9, 2011

रात एक देर

दिन अब भी गरम ही हैं
पर रातें ठंडी होने लगी हैं.
हलकी-सौंधी आंच के साथ
बातें लम्बी होने लगी हैं.

छुट्टियों के दिन अब ज़रा
देर ही से शुरू हुआ करेंगे.
गप्पों के साथ रात हाथ में
कॉफ़ी के मग हुआ करेंगे.

कभी पुरानी फिल्मों के साथ
रातें अपनी देर किया करेंगे.
कभी किताबों के पन्नों संग
सुबह तक बात किया करेंगे.

शायद किसी दिन तुम्हे एक
कागज़ी ख़त लिखा लिया करेंगे.
मगर फिर बीच में ही उक्ता
तुम्हे फोन कर लिया करेंगे.

फिर फोन रखके कुछ वक़्त
दीवार ताकते ये सोचा करेंगे,
कब आपके और कॉफ़ी के साथ
बैठ रात एक देर किया करेंगे.

Tuesday, November 8, 2011

मिलो

मिलेंगे सोच जब मिलें, लज्ज़त बातों का कम आता है.
राहें इत्तेफाक़न जब मिलें, मज़ा गुफ्तगू का तब आता है.
रोज़ सुबह सोचता हूँ के, तुमसे कहूं, आज श्याम मिलो.
कहता नहीं पर सोच, के तुम इत्तेफाक़न, आज श्याम मिलो.

Monday, November 7, 2011

नाम ख़ुशी है

लहर किनारे को
प्यार से
साहिल पुकारती है.
कहती है
ये नाम बेहतर है.

साहिल लहर को
प्यार से
मौज पुकारता है
कहता है
ये नाम ख़ुशी है.

Sunday, November 6, 2011

नाराज़गी

क्यों ऐसे उखड़े ख़फ़ा से हो
नाराज़गी की वजह क्या है?
मुझे भी तो कहो के आखिर
नाराज़गी की वजह क्या है.

Saturday, November 5, 2011

चश्मे

अरमान कुछ काँच में ढाले,
जिनके चश्मे बना लिए हैं.
दुनिया सारी अब मुझे, अपने
अरमानों के रंग में दिखती है.

Friday, November 4, 2011

सब सोए हैं

दिमाग, ज़हन, आचार, विचार  
थक हार  के सब जा सोए हैं.
दर्द सा जम गया है हाथों में
के आज कपड़े बहुत धोए हैं.

Thursday, November 3, 2011

मुशायरा

बीती रात का ख्वाब एक मुशायरा थी
तुम्हारे संग बीते पल वहां पर शायर थे.
हर नज़्म हर एक लम्हे का वाक़िया थी,
सुनने वाले सिर्फ, मैं और मेरे जज़्बात थे.



Wednesday, November 2, 2011

एहसान

नज़र भर देख चला जाउँगा,
एक बार खिड़की पे तो आओ.
मुझे देख न सही, कमस्कम
इस सुहानी श्याम पे मुस्काओ.

तुम शायद जानो न जानो,
तुम्हारा शहर छोड़ रहा हूँ.
मुझे यहाँ बांधे रखें जो वो
कच्चे-पक्के धागे तोड़ रहा हूँ.

एक एक कर सारे धागे तोड़े
बस ये आखरी टूटता नहीं.
के आज जाकर कह दूं तुम्हे,
सोचा कई बार, पर हुआ नहीं.

खैर, अब जो जा रहा हूँ मैं तो
कहके भी तुमसे क्या होगा.
बस एक बार देख मुस्कुरा दो  
तो तुम्हारा बड़ा एहसान होगा.




Tuesday, November 1, 2011

बात, वो कल की है

एक बात कहूं तुमसे,
बात मगर कल की है

खैर जाने ही दो उसे,
बात तो ये कल की है.

"अब कह भी दो, तो क्या
गर बात वो कल की है."

अब आज कहके क्या फायदा
बात तो आखिर कल की है.

"यूँ छेड़ के बात न छोड़ो,
बात भले वो कल की है."

"कुछ तो ज़हन में है तुम्हारे, बस
कह दो  वो बात जो कल की है"

ये आखें, हँसी, ज़िद, ये गुस्सा सब 
भा गए, पर वो बात कल की है. 

आगे की फिर कभी कहूँगा,
वो बात भी फिर कल की है. 

Monday, October 31, 2011

जूते- चप्पल

लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं
के मैं जूते क्यों नहीं पहनता.
वैसे इस सवाल का जवाब मैं
जब जैसा सूझे वैसा दे देता हूँ.
पर कभी खुद बैठ के सोचूं
तो कुछ वाजिब नहीं सूझता.

शायद जूते मुझे अपने उस
पुराने स्कूल की याद दिलाते हैं
जो मुझे कभी पसंद नहीं था.
जूते मुझे उस 'खेल-दिवस' के
ज़बरदस्ती की कदम-ताल
और परेड की याद दिलाते हैं.

जूते मुझे उन तंग बंद से
कमरों की तरह लगते हैं
जिनमे न रौशनी है न हवा.
ऐसे कमरे जो रहने वाले को
घोट सिकोड़ के बस अपने
अन्दर जकड़े रखा करते हैं.

जूतों की कड़कड़ाहट के बदले
मेरे लिए तो अपनी मामूली
चप्पलों की चपत ही अच्छी.
बिलकुल खुला, हवादार और
हमेशा रौशन ये कमरा जहाँ
हर वक़्त बेफिक्री की साँसें हैं.

Sunday, October 30, 2011

मेहमां

मेहमां सी बनी आज
एक नज़्म चली आई है.
सोचता हूँ देर तक रोक
उस से कुछ बातें कर लूं.

कहीं बातें मेरी अच्छी लगें
तो क्या पता शायद,
घर पर ही रुक जाये.

Saturday, October 29, 2011

पेन्सिल-कागज़

हाथ सीसे की कालिख लगे
बड़ा लम्बा अर्सा हो चूका
अब बस की-बोर्ड की धूल लगती है.
हथेली पे उस कागज़ की रगड़
के बजाए आज कल बस
मॉनिटर से आँखे चुंधियाती हैं.

आज श्याम मैं घर पर ही हूँ और
इत्तेफाक़न  बिजली भी उड़ गयी है,
मौका है खिड़की के बाजू बैठ
उफ़क़ पे ढलती ज़र्द रौशनी में
बूढ़े पुराने से कागज़ पे अपनी,
भूली सी  पेन्सिल से कुछ लिख लूं.

Friday, October 28, 2011

अपना सा सुकूँ

बहुत थक गया हूँ
बड़ी देर का चला हूँ.
कुछ देर बैठ कहीं
ज़रा सुस्ता लूं, ऐसी
कोई जगह भी तो
आसपास नहीं दिखती.
अगली बार सफ़र पे
निकलने के पहले
अपने घर के पीपल
की छांव का, एक
छोटा सा टुकड़ा
साथ ले चलूँगा, के
बेगानी धुप में भी
अपना सा सुकूँ मिले.
 

Thursday, October 27, 2011

मायने

लफ्ज़ महसूस के मायने
अब और याद नहीं आते
के उसे महसूस किए अब
एक ज़माना गुज़र गया.

उस इक याद के मायने
और भुलाए नहीं जाते
के उसे आके ठहरे अब
एक ज़माना गुज़र गया.

अपनी बेखुदी के मायने 
और समझाए नहीं जाते
के उसे समझना छोड़े अब
एक ज़माना गुज़र गया.

Wednesday, October 26, 2011

रौशन

रौशन सड़कें हैं, रौशन शहर.
रौशन गलियाँ है, रौशन हैं घर.
है सब कुछ रौशन जब
क्यों न एक लौ और लगाएँ.
बहार की रौशनी की तरह
अपने अन्दर एक दीप जलाएँ.

Tuesday, October 25, 2011

डोर का सिरा एक

एक हाथ काती डोर का
सिरा एक मेरे हाथ में है.
कभी खिंची, कभी ढीली
सी महसूस होती है वो.
लगा अगला सिरा छूटा
कभी खुद का फिसला.
डोर वो सीधी रखते रखते
उसमे गाँठें पड़ ही जाती थीं.
एक सुलझाते, दूसरी पड़ती
उसे देखो तो डोर फिसलती.
कभी दोनों सिरे खींचते थे,
कभी डोर ढीली लटकती.
गाँठों को सुलझाते हुए,
और सिरे को सँभालते
मगर अब सोच लिया है
के, डोर ये टूटने न दूँगा.
टूटी डोर जोड़ने में फिर
एक नई गाँठ लग जाएगी.
ये गाँठ, गाँठ ही रहेगी, कभी 
सुलझ, साबुत डोर न हो पाएगी. 


Monday, October 24, 2011

गहने

जाने क्यों गहनों की इतनी चाह है,
सोने-पन्ने पत्थरों के दाम बढ़ गए हैं.
कभी-कभी शर्मा के मुस्कुरा दीजियेगा
इस गहने का दाम भला कौन लगा सके. 

Sunday, October 23, 2011

लफ्ज़

इक खामोश सी  बात,
चीख मुझ से आ बोली ,
और बर्दाश्त नहीं होता
के चुप से मेरे लफ्ज़
अब आवाज़ मांगते हैं.

Saturday, October 22, 2011

चमक

देर एक भीगी रात को
घर पहुँचने की जल्दी में
मैं तेज़ चला जा रहा था
जब सड़क पर एक चमक
देख कर रुक सा गया.
कुछ दूर, ढलान का कन्धा
रुक रुक कर चमकता था.
कुछ देर भले और हो जाए
ये राज़ ज़रूर जानना था.
कदम खुद उस ओर बढ़े
जल्द मैं वहां आ पहुंचा.
उस सड़क पर वहां एक
बड़ा गड्ढा सा था जिसमे
श्याम की बारिश के साथ
धुल छलक के रात का वो
चमकता चाँद उतर आया था.

Friday, October 21, 2011

बेवक्त

रात का ख़्वाब था मगर
वो दिन में चला आया.
संभाल के रखा था के
रात फुरसत में देखूँगा.

उसे पर क्यों जल्दी सी थी
न जाने, बेवक्त ही आ गया.
और किस्सा कुछ यूँ हुआ मैं
दफ्तर में सोते पकड़ा गया.


Thursday, October 20, 2011

चुपके-चुपके

जब कानों में आप चुपके-चुपके से कुछ कहते थे,
हलकी गुदगुदी के साथ नटखट साज़ से बजते थे.

Wednesday, October 19, 2011

कब

पढ़ कर हम आखर चार, सोचे बैठे बहु बड़े बिचार.
पर जो पढ़े वो आखर चार, कब करें उन पर आचार.

Tuesday, October 18, 2011

कौए

My friend Harish loves crows. And I have grown to do so too- not just love but to respect as well. This is for the crows!


एक दोस्त मेरा कौए बड़े पसंद करता है,
अक्सर, उनके बार में लिखा भी करता है। 
वो कहता है, कौए इन्सान से कहीं ज्यादा
खुश और कहीं ज्यादा समझदार भी हैं। 

मुझे तो वो हमेशा भद्दे, बदसूरत,शोर
और गन्दगी फैलाने वाले लगते थे। 
आपस में लड़ते-झगड़ते, छीनते भागते
चालाक, साज़िशी परिंदे जान पड़ते। 

लोग उन्हें ज्यादतन झल्लाए उड़ाते थे,
कोई न चाहता के वो आस पास रहें.
तरह तरह के बहानों की आड़ में इन
कौओं को हमेशा दुत्कार ही मिलती है। 

इतनी दुत्कार की आखिर वजह?
शायद इनकी करतूतों में हमें
अपना ही अक्स नज़र आता है,
वो, जिस से हम सब भागते हैं। 

पर जब कुछ और ध्यान से देखा
तो बुराइयों और दुत्कारों के बावजूद
कौए हमेशा खुश ही दिखे, हमेशा
दिन ढलते ही चैन और सुकून में। 

वो तो शायद इस नफरत से
पूरी तरह से बेखबर रहते हैं। 
उनकी ज़िन्दगी का मकसद है
जीना और पूरी ज़िन्दगी जीना।

पड़ोसियों के साथ अन-बन, लगभग हम जैसी ही;
कुछ भी पाने के मौक़ों की फ़िराक़, हमारी ही तरह;
पर एक पर भी गर मुसीबत टूटे, तमाशा न देखते
पूरा झुंड एक हो जाता है मदद में, हमारी तरह नहीं।

हम इन्सान हैं और वो सिर्फ मामूली परिंदे,
हमारी ऊँची समझ, उनकी सिर्फ जीने की समझ। 
सब देख-सोच अपने दोस्त की बात सही लगी-
वो परिंदे हैं और हम सिर्फ मामूली इन्सान। 


Monday, October 17, 2011

रंग कौनसा?

कोई पूछे जब के रंग
कौनसा सबसे पसंद है,
तो अक्सर में जवाब
अलग-अलग दे देता हूँ.

पर कभी गर खुद मैं
अकेले बैठ ये सवाल
खुद ही से पूछूं तो, मुझे 
कोई जवाब नहीं सूझता.

कहा-सुना

न कहते कहते कुछ कहते हैं वो,
फिर बाद में कहते हैं, कुछ न कहा.
वो न सुनते सुनते सब सुनते हैं,
फिर क्यों कहते हैं, कुछ न सुना.

Sunday, October 16, 2011

आईना

गिलास कुल्लड़ या मटका
सुराही चुल्लू हो चाहे लोटा.
जो भी उसको मायना दे
बस बूँद भर पानी इन्सान
की मजबूरी का आईना है.

Friday, October 14, 2011

नंबर

बचपन में जब पहाड़े रटने होते थे
तब जी भर के नंबरों को कोसते थे.
बड़ा हो अब जब ज़िन्दगी बनानी है,
हर तरह के नंबरों का पीछा करते हैं.

पड़ाव

कुछ आखिरी थके कदम बाकी हैं
चमकीले मंज़र तक पहुँचने मैं
जहाँ से मंजिल दिखने लगती है.
पहुँच जाऊं तो ज़रा दम भरूं के
मंजिल सिर्फ़ दिखी है, मिली नहीं.


Wednesday, October 12, 2011

खौफ

हर पल पन्नों सा पलट रहा है,
पन्ने मगर पूरे पढ़ न पाता हूँ.
खौफ सा बैठ गया है के कहीं,
किताब आधी-पढ़ी न बंद हो जाए.

Tuesday, October 11, 2011

ज़रा

एहसान मांगती हैं मेरा
मुझसे ये दो आँखें मेरी.
अरसा हुआ ख़्वाब देखे,
बस ज़रा सा हमें सोने दो.

Monday, October 10, 2011

नायाब

नायाब थी वो घड़ी.
वो नहीं जो पहन रखी थी.
वो, जो साथ बिताई थी.

Sunday, October 9, 2011

झपक

काली धारदार भौंहें,
तीखी कांपती पलकें,
अक्सर छुपा लेती हैं
वो गहरी भूरी आँखें.

जब खुलें वो सुबह रौशन.
जब मिचीं तो सोती रात. 

Saturday, October 8, 2011

आइएगा

हलकी आहट सी करके, पहलु में चले आइएगा.
कानों में शरारत से, आहिस्ता कुछ फ़र्माइएगा.
इस से पहले में समझूं, कान खींच चले जाइएगा.
भले जाइएगा मगर लौट यूँ ही फिर आइएगा.

Friday, October 7, 2011

नया ख्व़ाब

रोज़ के बासी ख़्वाबों के बजाय
कल एक नया ख्व़ाब देखा है.
खुद को किताब लिए झूले पर
और ख़त्म सारे काम-काज देखा है.

Thursday, October 6, 2011

"मैं सुरमई"

सोचता था जो करुं न करुं
वो आज आखिर कर गुज़रा.
आगे  मोड़ पर  जो रहती थी
उसके घर के सामने जा उतरा.

सायकल दिवार पर सटाके
दरवाज़े पर दो दस्तक दे दी.
किवाड़ खोल अम्मा ने पुछा-
"क्यों, क्या बात है जी?"

सकपका के देखता रहा,
आवाज़ कोई निकली नहीं.
बस दुआ की, वो कहीं से
निकल आ जाये यहीं.

अम्मा चिड़ के फिर बोली-
"अरे कुछ कहो तो सही?"
कुछ कहता, इस से पहले,
सामने आ खड़ी थी वही.

अब अम्मा कहाँ सुनाई दे
हम खड़े बस देखते रहे.
ज़रा देख मुझे उसने कहा-
"अम्मा, ये दोस्त हैं मेरे."

न कभी बात न मुलाक़ात
बस आते जाते दीखते थे.
इतने में ही दोस्ती हुई तो
देखें किस्मत में क्या आगे.

अम्मा मूंह सिकोड़े गई भीतर,
हिचकती मुस्काती वो आगे आ गई.
इस से पहले के मैं नाम पूछता,
उसने खुद कह दिया, "हाई, मैं सुरमई."


फ़िराक

सबको फ़िक्र फ़िराकों की है
उन्ही की फ़िराक में भागते हैं
के ज़िन्दगी निकल न जाए
उन्हें हासिल करने से पहले.

Tuesday, October 4, 2011

खुशबू

कुर्सी पे आधे लेटे लेटे
आँखे हलकी सी मूंदे
वो खुशबू कहाँ की है
आखिर, सोच रहा था.
साँसे और गहरी भरते
आँखें अलसाते खोली.
बचपन की डाइरी के
पन्नों से हवा होकर
मुझपर गुज़र रही थी.
वो पन्ने पलट रहे थे,
खुशबू बचपन की थी.

Monday, October 3, 2011

मज़ा

सब जान अनजान बने रहे
इसमें जो मज़ा है, क्या कहें?

चाँद नगीना

आसमां सजा हुआ निकला है
तारों जड़े काले सूट में आज.
अंगूठी में चाँद नगीना  है
रात उसकी की सगाई है आज. 

Saturday, October 1, 2011

अकेला

दिन भर दफ्तरी बन, श्याम दोस्तों संग ज़रा बातें हो जातीं हैं.
रात घर लौटते मगर सिर्फ किताबें हैं जो राह ताकते रहती हैं.
उनसे गुफ्तगू मगर एक तरफ़ा ही होती है- वो बोलें मैं सुनता हूँ.
अकेला आदमी हूँ, कभी यूँ भी लगता है के मैं कहूँ कोई और सुने.

Friday, September 30, 2011

मुहावरे

मुहावरे कुछ बुदबुदाते,
चिड़चिड़ी सी
पड़ोस की दादी ने
हमें अपने आँगन
से खदेड़ दिया.

दोपहर का वक़्त
उनकी और उनकी
हिंदी व्याकरण की
पुरानी किताबों के
पन्नों का वक़्त था.

अपने ज़माने में भी
घर से लड़के, दादाजी
की मदद से पढ़ी थी.
और फिर छब्बीस साल
छठी से दसवीं पढ़ाई थी.

स्कूल तो खत्म हो गया
पर टीचरी वैसी ही रही.
मोहल्ले के बच्चे भी
उनकी तरह एक दूजे को
मुहावरों में कोसते थे.

"पूरी हिंदी ज़ुबां मैंने,"
दादी अक्सर कहती,
"छान पढ़ी है, पर जो
 सुकूं मुहावरों में है, वो
संज्ञा विशेषण में कहाँ?"

घर वाले सुन सुन कर
अब आदि हो चुके थे.
पडोसी मुस्कुरा देते थे.
नए लोगों को पर संभलते
ज़रा सा वक़्त लगता था.

ऐसा लेकिन कभी न हुआ
के मिलकर एक दफे कोई
दादी को भूल सका हो.
भले प्यार से या चिड़ से, वो
सबकी 'दादी मुहावरा' थी.

दादी, खैर अब नहीं रही.
पर आज भी जब उस
गली  के दोस्त मिलते हैं,
तो हाथ मिलाते गालियाँ
मुहावरों में ही निकलती हैं.









Thursday, September 29, 2011

न जाने























सुबह का सूरज अब सीधे
मेरी बालकनी पर आएगा.
पर वो चितकबरे परछाई के
धब्बे अब और न बनेंगे. 

गर्म रातों की हलकी हवा में 
हिलते पत्तों की सुकून भरी
बरसात के बूँदों की सी  
आवाज़  अब न सुनाई देगी.

आसमान नापते परिंदे जो
कभी चहचहाने  सुस्ताने के
बहाने रुक जाया करते थे
बस सीधे उड़ जाया करेंगे.

अपनी मस्ती में चूर और
दुनिया से बेखबर कूदते
उछलते लंगूर अब रेलिंग 
पर और बैठा नहीं करेंगे.

रात सोने के पहले
दरवाज़ा बंद करते हुए
वो गिरे सूखे पत्ते बाहर
अब निकालने न पड़ेंगे.

कभी रेलिंग पर खड़ा देख
मुझे, डाल से डाल फुदकते
उस घोंसले के काले परिंदे दो
अब और शोर नहीं करंगे.

सड़क किनारे का वो पेड़ जो
मेरी बरसाती तक पहुँचता था
आज काट दिया किसीने, जाने
वो परिंदे अब कहाँ जा रहेंगे.



शोर

यूँ चुप क्यों,
सब पूछते हैं .
उनसे क्या कहूँ,
लफ्ज़ नहीं हैं.
मैं अब तक शायद,
यूं ही बोलता रहा.
बस अब बातों में
कोई मन नहीं है.
चुप्पी भी ज़रा
आज़मा के देख लूं.
खामोशी का शोर पर,
कुछ कम नहीं है.

Tuesday, September 27, 2011

तीलियाँ

घर साफ़ करते आज
माचिस की एक पुरानी
डिब्बी मिली, जिस में
सिर्फ दो तीलियाँ थी, एक
जली हुई और एक साबुत.
ज़रुरत तो कुछ थी नहीं
वो बची हुई तीली मगर
फिर भी जलाली और
बैठ उसे पूरा जलता देखा.
उन चन्द रौशन लम्हों में
बचपन के वो नटखट
पल याद आ गए जब
माँ से छुपा-छुपा कर यूँ ही
माचिस की तीलियाँ जलाते थे. 

Monday, September 26, 2011

?

हुआ क्या है, न  जाने क्यों,
ख़ास कोई वजह भी  नहीं है.  
पर आज मुआफ करना  मुझे,
लिखने का मन ही नहीं है.

Sunday, September 25, 2011

कीमत

ओस का एक कतरा
बारिश की एक बूँद
देख याद आता है उन
आँखों से छलका और
रुखसार पे फिसलता
वो रौशन एक मोती.

इन्हें यूँ ज़ाया न कीजे
मैं बस एक अदना सा
आम आदमी हूँ, इनकी
कीमत न चुका सकूँगा.



Saturday, September 24, 2011

ज़ुकाम

I have a very bad cold today with my not so subtle sneezes constantly buzzing in my head. Amongst these my friend Laasya told me that she was going home for the weekend and a lot of goodies awaited her. I couldn't help typing a few home yearning lines in reply. The following is a result of that start.


देहलीज़ पे तड़के पहुँच के,
वो दरवाज़ा खटखटाना है,
सामान कमरे में रख कर,
सोफे पे ज़रा सुस्ताना है.
गिलास भर ठंडा पानी और
थोड़ी माँ कि डांट खानी है,
कटोरी भर घर कि दाल
के साथ थोड़ा चावल खाना है.
दोपहर कि धुप में ज़रा बैठ
फिर अपने बिस्तर सो जाना है.
श्याम की गपशप के साथ
सुबह का अखबार निपटाना है.
और रात सबके साथ बैठकर ,
देर तक हसना हसाना है.

खैर, इन मीठे ख़यालों के बीच
कमबख्त इस छींक को आना है.
ज़ुकाम बड़ा परेशान कर रहा है,
आज, मुझे भी घर जाना है.

Friday, September 23, 2011

चाबी वाली घड़ी

हमारे ज़माने में तो
घड़ी में हम हर रोज़
चाबी भरा करते थे.
सुबह सुबह जब हम
घर से निकलने की
तैयारी में होते थे,
तब आपकी चाची
हाथ में लाकर वो
चमचमाती स्टील की,
काले चमड़े की पट्टी लगी
हमारी घड़ी थमा देती थी.
एहतियात से फिर हम
अपने रुमाल से एक दफा
हलके से पौंछकर उसमे
ठीक आठ चाबियाँ भरते थे.
और हमारे अगले चौबीस घंटे
बिलकुल पाबंध हो जाते थे.
वो हलकी चलती टिक टिक
मिनट दर मिनट हमें, चलते
वक़्त की धड़कन सुनाती थी.
तुम्हारी आज कल की रंग बिरंगी
सेल्ल वाली घड़ियों में ये बात कहाँ? 

चाचा जब भी अपनी पुरानी
घड़ी की यूँ बात करते थे,
मुझे हसी तो आती ही थी
जल के गुस्सा भी हो जाता है.
उनकी घड़ी से हमारी घड़ी
कोई कम तो नहीं, तो क्यों
खामख्वा की शेखियां बघारते हैं?

इस बार अपनी सालगिरह पर
मुझे उसी ज़माने की घड़ी मिली.
अब मैं भी अपने दोस्तों को
बड़े नाज़ से चाचा के ज़माने की
घड़ी की खूबियाँ सुनाता हूँ.


Thursday, September 22, 2011

बरसात

दो लब यूँ थके से
जुड़ते न बनते थे.
वो पलकें बोझल
खुलने से नाराज़ थीं.
ज़ुल्फों की उलझी गांठें
सुलझाती शोख उंगलियाँ.
माथे पर परेशान करती
एक हलकी सी शिकन
और गालों पे चुपके से
सरकती एक बरसात
की मद्धम सी ठंडी धार.

बरसात,
सच मुझे बहुत पसंद है.


बस एक चाय की क़सर

धुंधली कायनात के
कोहरे के परदे के पीछे
लुक्का छिपी खेलती
उस नम से सूरज की
शरारती ओसीली रौशनी
रह रह के मुझे छेड़ती है.

"क्या अल्साए जाते हैं,
माना मौसम का असर है.
सुबह भले कुछ सुस्त सही,
बस एक चाय की क़सर है."

*This is for yesterday as I couldn't post owing to unavoidable circumstances.

Tuesday, September 20, 2011

नई किताब

कुछ चन्द आखिरी पन्ने थे
जो आज पलट के पढ़ लिए.
हाथ नई इक किताब आई है
देखूँ पन्ने इसके क्या कहते हैं.

Monday, September 19, 2011

गई रात का ख्वाब

गई रात का ख्वाब
सुबह आँख खुलते
मैंने चन्द लफ़्ज़ों में
कैद कर लिया है.
रात फिर आज
उसे पढ़ के सोऊंगा.
के वो हसीं ख्वाब
एक बार फिर देखूँ.

Sunday, September 18, 2011

मय

मय बेखबर है.
खुद अपना असर
नहीं जानती है वो.

मयकश जानकार भी
क्यों उसे कमबख्त
पुकारता फिरता है?

Saturday, September 17, 2011

मसरूफ

दिन आज का मसरूफ रहा
कुछ भी काम न करने में.
देखें क्या क़यामत लाती है,
आने वाली सुबह कल की.

Friday, September 16, 2011

सवाल-जवाब

कौन कैसे क्यों
वो यूँ इसलिए.
क्या  कब कहाँ
ये अब यहाँ.

Thursday, September 15, 2011

छोटी छोटी खुशियाँ

छोटी छोटी खुशियाँ
दिन में कई होती हैं.
ज़रुरत बस इतनी है
की हम उन्हें पहचानें.
कोशिश करता हूँ के
रोज़ की कमस्कम,
एक तो ज़रूर पहचानूँ.

जैसे आज, मैंने अपनी
एक नई मिली किताब पर
अंग्रेज़ी और हिंदी में अपना,
काली स्याही में नाम लिखा. 

Wednesday, September 14, 2011

तब आप होते हैं

अभी कुछ कभी कुछ देख,
यहाँ कुछ वहाँ कुछ सुन,
अब कुछ तब कुछ छूँ,
ये कुछ वो कुछ महक,
कल कुछ आज कुछ ज़ायके,

जब मुझे महसूस होते हैं
ख़यालों में तब आप होते हैं.



Tuesday, September 13, 2011

जीएगा कब?

बचपन में वो बड़े सवाल करता था,
जवानी उनके जवाब ढूँढने  में कट गई.
आगे के साल जवाब बटोरने में बीते,
बाकी उम्र अगर उन्हें समझते बीतेगी,

तो वो जीएगा कब?




Monday, September 12, 2011

गुम

कभी लिखते हुए
स्याही ख़त्म हो जाती है,
और कभी अचानक
कलम की नोक टूट जाती है.
कभी शायद
काग़ज़ ख़त्म हो जाते हैं,
और कभी  कभी
ख़याल गुम हो जाते हैं.

हर सूरत में लिखना  मगर
रुक के शुरू हो सकता है.

पर क्या हो ग़र कभी,
जिस रौशनी में लिखते थे,
बेवक्त एक अनंत अँधेरे में
वो अचानक गुम हो जाए?

Sunday, September 11, 2011

क्यों

क्यों घुट रहा हूँ
क्यों मैं बंधा सा हूँ
कुछ शायद कहूँ
क्यों गूंगा सा हूँ.

कहूँ तो किस से कहूँ
भीड़ में अकेला सा हूँ
मैं चिल्ला के क्यों थकूं 
न होगी कहीं एक भी चूं.

सबके लिए मैं  गूंगा हूँ
पर तुमसे एक बात  कहूँ
मैं शायद ऐसा घुटता हूँ,
के खुदकी मैं ही सुनता हूँ.

Saturday, September 10, 2011

कहाँ देखा?

अक्स के अश्क देख
एक सवाल सा उठा.
न शीशा न आंसू ही
जो देखा, कहाँ देखा?

Friday, September 9, 2011

यूँ न देखें

कल श्याम दफ्तर के बाद
मैं कुछ यूँ आपको मिला के
कुछ पल ग़ौर से देख मुझे
आपकी एक  हँसी छूट गयी.

आपकी हँसी से मेरा ग़ौर टूटा.
शरारती लहज़े से आपने कहा-
"जनाब, कोरे काग़ज़ को यूँ न
देखें, उसी से मुहब्बत हो जाएगी."

आपके आँखों की शरारत आपकी
हँसी के ज़रिए मुझ पर आ छलकी.
ज़ुबां बेसब्र, पल भर भी सोचे बग़ैर 
कुछ इस तरह से जवाब दे बैठी.

"हुज़ूर, काग़ज़ से बस मैंने उसकी,
नज़्म-ए-फरमाइश अभी पूछी ही थी.
पर, सच मानिए, ये सोचा ही  न था,
जवाब में नज़्म, खुद चली आएगी."


Thursday, September 8, 2011

चाँद-ज़मीन

इक नम ज़र्द सा चाँद आज,
आलसी  बादलों से झांकता है.
बारिश अर्से बाद थमी है आज,
देखे ज़मीन क्या कर रही है.

Wednesday, September 7, 2011

काश, के कल छुट्टी होती

कल की सुबह कुछ,
दोपहर से शुरू होती
और, नाश्ते की जगह,
सब्ज़ी, दाल, रोटी होती.
एक किताब और कुछ
ग़ज़लों के साथ हमारी,
श्याम की शुरुआत होती.
दोस्तों के गप्पों के साथ,
प्याली भरके चाय होती.
फिर तैयार हो निकलते,
रात की कहीं दावत होती.
रात को कुछ देर लौट के
फिर रजाई से गुफ्तगू होती.

खैर, ये सब ख़याल भर ही,
काश, के कल छुट्टी होती.


Tuesday, September 6, 2011

सुर सात

एक धुन सुन, थके हारे
से कदम बढ़ चलते हैं.

एक तर्ज़ पर, ग़मगीन
चेहरे मुस्का उठते हैं.

ये  सुर सात कुदरत के,
वक़्त को बदल सकते हैं.

Monday, September 5, 2011

चुप्पी का शोर

एक रोज़ के लिए
आज आवाज़ मेरी,
मुझे छोड़ गयी.

पल भर को रुक
सोचा मैंने, क्या ये
चुप्पी बर्दाश्त होगी.

दिन ढलने को है, जो
बर्दाश्त नहीं होता वो
इस चुप्पी का शोर है.

Sunday, September 4, 2011

फिर भी

मेरे चश्मे का नंबर ज़ीरो है, सिर्फ शौकिया पहनता हूँ.
कुछ बातें ज़रूरी नहीं होती, मगर फिर भी करता हूँ.

Saturday, September 3, 2011

हर गुज़रती श्याम

हर गुज़रती श्याम मैं, एक मिस्रे में लिख लेता हूँ। 
हर श्याम जोड़ के शायद, ज़िन्दगी की ग़ज़ल बने। 

Friday, September 2, 2011

ज़रा जी लूं

इक ज़िन्दा रहना ही क्या ज़रूरी है?
दो साँसों के बीच का एक पल मैं,
ज़िन्दगी से चुरा लाया हूँ आज के-
पूरा टूटके उस पल में ज़रा जी लूं.

सपने की रसोई

हर रोज़ से कुछ अलेहदा आज,
सुबह नींद बड़ी खुश गवार खुली.
चेहरे पर हलकी सी मुस्कान थी,
ज़ुबां पर बचपन के इतवार की
खुशबूदार दोपहर का ज़ायका था.
पिघलती सुबह की नींद की एक 
आखरी जम्हाई लेते याद आया,
रात सपने की रसोई में माँ थी.

Wednesday, August 31, 2011

पसंद

एक ख़त लिखने बैठे हैं,
कलम खाली है, दवात  नहीं.
स्याही कुछ चार रंगों में है,
पसंद आपकी पर याद नहीं.

Tuesday, August 30, 2011

बोल बोल

हवा सी हलके बोल बोल,
लफ्ज़ हर एक नाप तोल.
जान, इक इक का है मोल,
राज़ हर रुक रुक के खोल.

शीशा आज न साफ़ सही,
हर बात भले ही अनकही.
जो दिल में उसने छुपा रखी,
फिर चीख कहेगा  खुद वही.

Monday, August 29, 2011

बूँद बूँद

ज़िन्दगी बूँद बूँद टपकते पानी सी,
लगे भीगी ठंडी चमकते पारे जैसी.
 
हाथ जितना बटोरो उतनी फिसलती,
जो थोड़ी बटोरो तो जल्द ही छलकती.
 
हर बूँद गिरने से पहले, उसका ज़ायका चखो,
बस बूँद एक भी ज़ाया न टपकें, ख्याल रखो.    
 

इरादा

पलकों पे कुछ रातों का बोझ है,
आँखें उनके तले अन्दर दबी हुई हैं.
बस दिमाग अब जवाब देने को है,
कुछ न कहो, इरादा मेरा सोने को है.

Saturday, August 27, 2011

भरम

मानुस मानस कहत चला, सकल पृथ्वी परम जनम.
मानस मानुस मार भला, कहूँ सब कुछ अंत भरम.


Friday, August 26, 2011

मंज़िल अपने माने

हर अगले कदम पर दम भरते हैं,
के अगले कदम पर बेदम न हों.
पर बैठ कुछ पल दम  नहीं लेते हैं,
कहीं मंज़िल पे पहुँचते देर न हो.

भागते हांफते हुए चलो पहुँच ही गए,
मंज़िल के माने पर सिर्फ किताबी रहे.
जो गर सफ़र फुरसत से किया होता,
तो मंज़िल अपने माने खुद ही कहे.

Thursday, August 25, 2011

शर्म

दो गोरे गोरे गालों पर,
महीन से गड्ढे पड़ते हैं.
जब सुर्ख जुडवा होंठ वो,
यूँ शर्माके हल्के हस्ते हैं.


व्यक्त

व्यक्त किंचित शब्द, निःशब्द
सुप्त भ्रमित, जागृत स्तब्ध.
वाक्य बहुवाच गुंजित, बहुअर्थ
 मनुष्य सचेत श्रवण व्यर्थ.


Tuesday, August 23, 2011

बस, ये ही.

थकी आँखें,
थकी साँसें,
थकी धड़कन,
थका सा मन.

न आस दिखे,
न घुटन मिटे,
न चैन पड़े,
न ही राह सूझे.

इक कतरा आंसू,
इक  छोटी सिसकी,
इक हल्का दिल,
इक शांत सा मन.

बस, ये ही.

Monday, August 22, 2011

हर मौसम का पहला दिन

हर मौसम का पहला दिन,
मैंने एक एक लिफ़ाफ़े में,
तुमसे छुपाके, सहेज संभाल
तुम्हारी अलमारी में रखा है।

तुम्हारी सालगिरह पर कल,
पिछले साल साथ गुज़ारे
हर मौसम का पहला दिन,
तुम्हे, तोह्फे में देना चाहता हूँ।

आहिस्ता शबनमी हाथों से खोलना
कहीं छूटती हँसी हँसते भाग न जाए
या कबके रोके आँसू बहते निकलते
कहीं पुरानी कड़वाहटें न बिखेर जाएँ।

दो चीज़ें मगर ज़रूर फूट निकलेंगीं, क्यों कि
            न गले लग जाने की और न ही प्यार की 
            कभी उम्र गुज़रती है।

Sunday, August 21, 2011

याद भी डाक से आया करती

सोचो गर याद भी डाक से आया करती,
और डाकिये चिट्ठी के साथ याद भी बाँटते.
हफ्ते भर चलो सबको यादें पहुँचती होती,
पर छुट्टी इतवार पे क्या कोई याद न आती?

कहानी

लिख लिख आखर सबद बना,सबद सबद जुड़ बाणी.
बाणी कह सुन कथा भई, और कह कह कथा कहानी.

Friday, August 19, 2011

कुछ चन्द ज़रा थोड़े

कुछ चन्द ज़रा थोड़े
लावारिस से ख़याल,
आज राह चलते
अचानक से मिल गए.

कुछ ने कहा-
"बड़े उक्ता से गए हैं,
साथ ले लो हमें."

चन्द बोले-
"कुछ तो अब,
नया सा चाहिए."

ज़रा ने पुछा-
"क्यों भाई साहब,
आप क्या कहते हैं?"

और बाकी थोड़े
उनके साथ खड़े,
सर हिला रहे थे.

अचानक फिर,
हॉर्न की आवाज़ हुई,
और नज़र
हरी बत्ती पर पड़ी.

हफ्ते का बुध,
और दफ्तर का
बेमाना सा एक,
थका लम्बा दिन था.

खुद से ऐसा कुछ,
अलग धलग सा
के अपने ही ख़याल,
अपनी पहचान बताते थे.

Thursday, August 18, 2011

पता नहीं

कुछ तो खोजते हैं लोग,
क्या, खुदको पता नहीं.

वो कहते हैं भगवान् को,
क्यों, खुदको पता नहीं.

भगवान् मिला तो क्या,
आगे, खुदको पता नहीं.

शायद उसका नाम पूछें,
क्या, खुद उसको भी पता नहीं. 

तुम तो नहीं?

जो गुज़र रहा, कहते हैं वक़्त है.
जो थम सा गया, वो वक़्त नहीं?
जो अकेली राह चला, वो मैं था.
जो राह मिले, कहीं तुम तो नहीं?



Tuesday, August 16, 2011

मेहरबानी

रुक के मुड़ के लोगों ने आज, 
गौर फ़रमाया चौंक के हम पे.
कुदरत अलग सी पेश आई आज,
की मेहरबानी  छींकों की हम पे.


Monday, August 15, 2011

परोसा है...

एक थाली सजाकर आज,
अपने कुछ ख़्वाब परोसे हैं.
साथ कटोरी में कुछ ज़रा,
अरमाँ भी दाल रखे हैं.
आरज़ू भर गिलास साथ में,
थाली के बगल रख छोड़ी है.
और इक छोटी तश्तरी में थोड़ा,
शरारत का अचार रखा है.

खुशगवार मन बनाके,
इत्मिनान से बैठ कर,
एक एक कर सब चखना.
जो कुछ अच्छा लगे तो,
जी भरके लुत्फ़ उठाना.

हाथ मूंह धोकर फिर, एक
छोटे सवाल का जवाब देना.
जो ग़र आज का परोसा,
आपको कुछ पसंद सा आया हो,
तो क्या इजाज़त है मुझे,
के उम्र भर यूँ ही,
आपको परोसता रहूँ?


Sunday, August 14, 2011

शीशी भर बरसात

सावन के कई,
खुश्क दिनों के बाद,
आखिरकार,
बादलों का सब्र टूटा था.

आँगन की,
सूखी मिटटी पर
बूँदें सौंधी महेकती, 
छींटें बना रहीं थीं.
सब धुल के,
नया सा हो रहा था.
प्यासी कुदरत को
जैसे चैन मिल रहा था.

बरामदे की
टीन की छत से,
पानी गिर रहा था.
यूँ लगता था के,
दरवाज़े के बाहर
पानी की लड़ियाँ हों.
कभी सीधी,
कभी लहराती हुई,
जैसे अपनी किसी
पुरानी धुन पे
नाच रहीं हों.

पड़ोस के घर के
फिल्टर कॉफ़ी की महक,
बारिश की खुशबू में
बेझिझक घुल रही थी.
वो नशीली महक मुझे,
पुरानी फिल्मों के
बरसाती गानों की
याद दिला रही थी.

इतने में,
पांच छे साल का,
पड़ोस का बच्चा,
हाथ में कुछ लिए,
सर पर छतरी ताने,
नंगे पाँव,
बारिश में चला आया.

उसके हाथ में,
एक छोटी शीशी थी.
ढक्कन निकाल के,
शीशी बारिश में रख दी.
जब वो भरी तो,
बड़े ध्यान से ढक्कन लगाया.
फिर 'माँ' की पुकार लगाता,
दौड़के घर भागा.
रसोई में,
माँ के पास से आवाज़ आई-
"माँ देखो!
तुम्हारे लिए में,
शीशी भरके बरसात लाया हूँ!"