हमारे ज़माने में तो
घड़ी में हम हर रोज़
चाबी भरा करते थे.
सुबह सुबह जब हम
घर से निकलने की
तैयारी में होते थे,
तब आपकी चाची
हाथ में लाकर वो
चमचमाती स्टील की,
काले चमड़े की पट्टी लगी
हमारी घड़ी थमा देती थी.
एहतियात से फिर हम
अपने रुमाल से एक दफा
हलके से पौंछकर उसमे
ठीक आठ चाबियाँ भरते थे.
और हमारे अगले चौबीस घंटे
बिलकुल पाबंध हो जाते थे.
वो हलकी चलती टिक टिक
मिनट दर मिनट हमें, चलते
वक़्त की धड़कन सुनाती थी.
तुम्हारी आज कल की रंग बिरंगी
सेल्ल वाली घड़ियों में ये बात कहाँ?
चाचा जब भी अपनी पुरानी
घड़ी की यूँ बात करते थे,
मुझे हसी तो आती ही थी
जल के गुस्सा भी हो जाता है.
उनकी घड़ी से हमारी घड़ी
कोई कम तो नहीं, तो क्यों
खामख्वा की शेखियां बघारते हैं?
इस बार अपनी सालगिरह पर
मुझे उसी ज़माने की घड़ी मिली.
अब मैं भी अपने दोस्तों को
बड़े नाज़ से चाचा के ज़माने की
घड़ी की खूबियाँ सुनाता हूँ.
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