मुहावरे कुछ बुदबुदाते,
चिड़चिड़ी सी
पड़ोस की दादी ने
हमें अपने आँगन
से खदेड़ दिया.
दोपहर का वक़्त
उनकी और उनकी
हिंदी व्याकरण की
पुरानी किताबों के
पन्नों का वक़्त था.
अपने ज़माने में भी
घर से लड़के, दादाजी
की मदद से पढ़ी थी.
और फिर छब्बीस साल
छठी से दसवीं पढ़ाई थी.
स्कूल तो खत्म हो गया
पर टीचरी वैसी ही रही.
मोहल्ले के बच्चे भी
उनकी तरह एक दूजे को
मुहावरों में कोसते थे.
"पूरी हिंदी ज़ुबां मैंने,"
दादी अक्सर कहती,
"छान पढ़ी है, पर जो
सुकूं मुहावरों में है, वो
संज्ञा विशेषण में कहाँ?"
संज्ञा विशेषण में कहाँ?"
घर वाले सुन सुन कर
अब आदि हो चुके थे.
पडोसी मुस्कुरा देते थे.
नए लोगों को पर संभलते
ज़रा सा वक़्त लगता था.
ऐसा लेकिन कभी न हुआ
के मिलकर एक दफे कोई
दादी को भूल सका हो.
भले प्यार से या चिड़ से, वो
सबकी 'दादी मुहावरा' थी.
दादी, खैर अब नहीं रही.
पर आज भी जब उस
गली के दोस्त मिलते हैं,
तो हाथ मिलाते गालियाँ
मुहावरों में ही निकलती हैं.
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