कल श्याम दफ्तर के बाद
मैं कुछ यूँ आपको मिला के
कुछ पल ग़ौर से देख मुझे
आपकी एक हँसी छूट गयी.
आपकी हँसी से मेरा ग़ौर टूटा.
शरारती लहज़े से आपने कहा-
"जनाब, कोरे काग़ज़ को यूँ न
देखें, उसी से मुहब्बत हो जाएगी."
आपके आँखों की शरारत आपकी
हँसी के ज़रिए मुझ पर आ छलकी.
ज़ुबां बेसब्र, पल भर भी सोचे बग़ैर
कुछ इस तरह से जवाब दे बैठी.
"हुज़ूर, काग़ज़ से बस मैंने उसकी,
नज़्म-ए-फरमाइश अभी पूछी ही थी.
पर, सच मानिए, ये सोचा ही न था,
जवाब में नज़्म, खुद चली आएगी."
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