पुरानी उस किताब पर
जमी धुल की परतों से
माज़ी की महक आती है।
उँगलियों से पन्ने पलटते
ज़बान पे गुज़रे वक़्त का
हल्का ज़ायका आता है।
सफहों की फड़-फड़ाती
आवाज़ में, पुराने घर का
आँगन सुनाई देता है।
फीके लाल सूती कपड़े के
हार्ड-बाउंड कवर में उसकी,
उम्र का एहसास होता है।
ज़र्द पड़े पन्नों पे उभरी
काली सियाही की छाप
पर और जवाँ लगती है।
ज़र्द पड़े पन्नों पे उभरी
काली सियाही की छाप
पर और जवाँ लगती है।
एक अरसे बाद आज मैंने
क़िताब उठाई है, अब और
रखने का मन नहीं होता है।
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