Tuesday, December 13, 2011
खामख्वा की कट्टीयाँ
हल्की छेड़ छाड़ का जो कभी मन करे,
तो पहले ज़रा रुक सोच लेता हूँ,
और कभी गर यूँ ही कुछ कह दिया,
तो अचानक रुक फिर सोचने लगता हूँ,
के ये सुन वो मुझपर मेहेरबां होकर,
कहीं दे न दें कुछ
खा
मख्वा की कट्टीयाँ !
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