बूढ़े होते वक़्त ने आख़िर
आज कलम खुद उठा ली है.
जो दास्तानें इन्सां लिखता था,
वो वक़्त अब खुद ही लिखेगा.
"आख़िर इन्सां का क्या भरोसा",
वक़्त खाँसते हुए कहता है,
"वो दास्ताँ नहीं, सिर्फ अपनी
सहूलियत ही लिखता है."
आज कलम खुद उठा ली है.
जो दास्तानें इन्सां लिखता था,
वो वक़्त अब खुद ही लिखेगा.
"आख़िर इन्सां का क्या भरोसा",
वक़्त खाँसते हुए कहता है,
"वो दास्ताँ नहीं, सिर्फ अपनी
सहूलियत ही लिखता है."
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