मैं आज-कल जहाँ रहा करता हूँ,
उस एक कमरे को मैं घर कहता हूँ.
दो दरवाज़े हैं, दो खिड़कियाँ भी
और सीढ़ियाँ जो छत को जाती हैं.
एक गुसलखाना है जो बरसात में
टपकता है, सो सफाई का पानी अक्सर
उन दिनों खुद ही भर जाया करता है.
एक चटाई पे गद्दा मेरा बिस्तर है
जो ढेरों किताबों और कुछ कपड़ों से
हमेशा ही घिरा रहता है.
उस ढेर में मेरी एक डाइरी भी है जिस में
मैं अपने बेतुके ख़याल लिखा करता हूँ.
सो जो आप अभी पढ़ रहे हैं वो भी
उसी देरी का एक बेतुका सा पन्ना है.
अब भले अपने कमरे पे कोई लिखता है,
मैंने भी खैर इसलिए लिखा है क्यों कि-
यूँ लिखना बिलकुल बेतुका होता है.
उस एक कमरे को मैं घर कहता हूँ.
दो दरवाज़े हैं, दो खिड़कियाँ भी
और सीढ़ियाँ जो छत को जाती हैं.
एक गुसलखाना है जो बरसात में
टपकता है, सो सफाई का पानी अक्सर
उन दिनों खुद ही भर जाया करता है.
एक चटाई पे गद्दा मेरा बिस्तर है
जो ढेरों किताबों और कुछ कपड़ों से
हमेशा ही घिरा रहता है.
उस ढेर में मेरी एक डाइरी भी है जिस में
मैं अपने बेतुके ख़याल लिखा करता हूँ.
सो जो आप अभी पढ़ रहे हैं वो भी
उसी देरी का एक बेतुका सा पन्ना है.
अब भले अपने कमरे पे कोई लिखता है,
मैंने भी खैर इसलिए लिखा है क्यों कि-
यूँ लिखना बिलकुल बेतुका होता है.
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