Tuesday, October 4, 2011

खुशबू

कुर्सी पे आधे लेटे लेटे
आँखे हलकी सी मूंदे
वो खुशबू कहाँ की है
आखिर, सोच रहा था.
साँसे और गहरी भरते
आँखें अलसाते खोली.
बचपन की डाइरी के
पन्नों से हवा होकर
मुझपर गुज़र रही थी.
वो पन्ने पलट रहे थे,
खुशबू बचपन की थी.

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