Thursday, October 6, 2011

"मैं सुरमई"

सोचता था जो करुं न करुं
वो आज आखिर कर गुज़रा.
आगे  मोड़ पर  जो रहती थी
उसके घर के सामने जा उतरा.

सायकल दिवार पर सटाके
दरवाज़े पर दो दस्तक दे दी.
किवाड़ खोल अम्मा ने पुछा-
"क्यों, क्या बात है जी?"

सकपका के देखता रहा,
आवाज़ कोई निकली नहीं.
बस दुआ की, वो कहीं से
निकल आ जाये यहीं.

अम्मा चिड़ के फिर बोली-
"अरे कुछ कहो तो सही?"
कुछ कहता, इस से पहले,
सामने आ खड़ी थी वही.

अब अम्मा कहाँ सुनाई दे
हम खड़े बस देखते रहे.
ज़रा देख मुझे उसने कहा-
"अम्मा, ये दोस्त हैं मेरे."

न कभी बात न मुलाक़ात
बस आते जाते दीखते थे.
इतने में ही दोस्ती हुई तो
देखें किस्मत में क्या आगे.

अम्मा मूंह सिकोड़े गई भीतर,
हिचकती मुस्काती वो आगे आ गई.
इस से पहले के मैं नाम पूछता,
उसने खुद कह दिया, "हाई, मैं सुरमई."


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