Saturday, October 29, 2011

पेन्सिल-कागज़

हाथ सीसे की कालिख लगे
बड़ा लम्बा अर्सा हो चूका
अब बस की-बोर्ड की धूल लगती है.
हथेली पे उस कागज़ की रगड़
के बजाए आज कल बस
मॉनिटर से आँखे चुंधियाती हैं.

आज श्याम मैं घर पर ही हूँ और
इत्तेफाक़न  बिजली भी उड़ गयी है,
मौका है खिड़की के बाजू बैठ
उफ़क़ पे ढलती ज़र्द रौशनी में
बूढ़े पुराने से कागज़ पे अपनी,
भूली सी  पेन्सिल से कुछ लिख लूं.

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