Tuesday, October 25, 2011

डोर का सिरा एक

एक हाथ काती डोर का
सिरा एक मेरे हाथ में है.
कभी खिंची, कभी ढीली
सी महसूस होती है वो.
लगा अगला सिरा छूटा
कभी खुद का फिसला.
डोर वो सीधी रखते रखते
उसमे गाँठें पड़ ही जाती थीं.
एक सुलझाते, दूसरी पड़ती
उसे देखो तो डोर फिसलती.
कभी दोनों सिरे खींचते थे,
कभी डोर ढीली लटकती.
गाँठों को सुलझाते हुए,
और सिरे को सँभालते
मगर अब सोच लिया है
के, डोर ये टूटने न दूँगा.
टूटी डोर जोड़ने में फिर
एक नई गाँठ लग जाएगी.
ये गाँठ, गाँठ ही रहेगी, कभी 
सुलझ, साबुत डोर न हो पाएगी. 


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