Friday, October 21, 2011

बेवक्त

रात का ख़्वाब था मगर
वो दिन में चला आया.
संभाल के रखा था के
रात फुरसत में देखूँगा.

उसे पर क्यों जल्दी सी थी
न जाने, बेवक्त ही आ गया.
और किस्सा कुछ यूँ हुआ मैं
दफ्तर में सोते पकड़ा गया.


No comments:

Post a Comment