पैदल चलने का बड़ा शौक़
हुआ करता था कभी।
कहने सुनने को तो ख़ैर,
अब भी है।
एक अर्सा हो गया मगर
पैदल सैर को गए हुए।
ये शौक़ कोई कसरती नहीं था,
बल्कि ज़हनी था।
तड़के सुबह,
पैदल रास्ते किसी राग के
बड़े ख़याल से लगते थे।
एक एक सुर की तरह
हर मोड़ हर नुक्कड़
अपनी अपनी पहचान लिए
एक एक कर मुखातिब होता था।
कोई मोड़ कहीं भा गया तो
सुरों की कई पेंचें लड़ जातीं।
किसी नुक्कड़ पर कभी,
मद्धम, पंचम से दो बातें हो जातीं।
किसी लय से चढ़ते उतरते
घुमते फिरते पैदल रास्ते पर
ज़िन्दगी अपने ही तालों पर थिरकती-
कहीं इस थाप, कहीं उस थाप।
चढ़ते सूरज के साथ जब मैं
वापसी को पलटता था,
वही पैदल रास्ता अब
उस राग के छोटे ख़याल सा जान पड़ता।
बढ़ती चहल-पहल के साथ साथ
सुर, ताल, ले सब द्रुत गति के होने लगते।
मोड़ों पर सुर तेज़ तानों में गुज़रते,
और नुक्कड़ों पर आलाप दौड़ते दीखते।
इन सब से होते गुज़रते ज्यूँ
अपने दरवाज़े तक पहुँचता,
चिटकनी की आवाज़ पर
तडके सुबह के उस
पैदल रास्ते के ख़याल का,
आखरी सुर पूरा सठीक बैठता।
पैदल चलने का शौक़
अब भी है,
उन तडके सुबह के रास्तों के ख़याल
अब भी हैं।
हुआ करता था कभी।
कहने सुनने को तो ख़ैर,
अब भी है।
एक अर्सा हो गया मगर
पैदल सैर को गए हुए।
ये शौक़ कोई कसरती नहीं था,
बल्कि ज़हनी था।
तड़के सुबह,
पैदल रास्ते किसी राग के
बड़े ख़याल से लगते थे।
एक एक सुर की तरह
हर मोड़ हर नुक्कड़
अपनी अपनी पहचान लिए
एक एक कर मुखातिब होता था।
कोई मोड़ कहीं भा गया तो
सुरों की कई पेंचें लड़ जातीं।
किसी नुक्कड़ पर कभी,
मद्धम, पंचम से दो बातें हो जातीं।
किसी लय से चढ़ते उतरते
घुमते फिरते पैदल रास्ते पर
ज़िन्दगी अपने ही तालों पर थिरकती-
कहीं इस थाप, कहीं उस थाप।
चढ़ते सूरज के साथ जब मैं
वापसी को पलटता था,
वही पैदल रास्ता अब
उस राग के छोटे ख़याल सा जान पड़ता।
बढ़ती चहल-पहल के साथ साथ
सुर, ताल, ले सब द्रुत गति के होने लगते।
मोड़ों पर सुर तेज़ तानों में गुज़रते,
और नुक्कड़ों पर आलाप दौड़ते दीखते।
इन सब से होते गुज़रते ज्यूँ
अपने दरवाज़े तक पहुँचता,
चिटकनी की आवाज़ पर
तडके सुबह के उस
पैदल रास्ते के ख़याल का,
आखरी सुर पूरा सठीक बैठता।
पैदल चलने का शौक़
अब भी है,
उन तडके सुबह के रास्तों के ख़याल
अब भी हैं।
Very nice !
ReplyDeleteBada hi shastriya tehelna hua apka.... :)
ReplyDeleteBy the way.. "Anonymous" is Bapa..!!
*shaastriya
ReplyDelete