Wednesday, March 27, 2013

मिली

मेरी आँखों पे पट्टी बाँधे
अपने साथ खींच ले आई,
और बैठा दिया था तुमने
उस पुरानी सी कुर्सी पर।
वो कमरा था के आँगन,
कमरा सा ही लगा था
पर घर किसका था वो
देर तक जान नहीं पाया।
इतवार की सुबह थी और
शायद दस बज रहे थे,
आवाजें घरेलु इतवारों सी,
रेडियो पे फ़िल्मी गाने,
रसोई में छौंके की सर्राहट,
अखबार के पलटते पन्ने,
और पड़ोस के बच्चों का शोर।
शायद मेरा ही घर था, पर
नहीं, कुछ अलग सा था।
तुमने बिठाते वक़्त हौले से
अपनी ऊँगली मेरे होंठों पर रख,
हँसी दबाते कहा था-
"श्श! आवाज़ न करना, न हिलना!"
फिर हल्के से चूमके माथे को,
नटखट चूड़ियाँ खनकाती तुम,
खिलखिलाते हुए भाग गई थी।
खुद को अकेला समझ मैं,
पट्टी खोलने लगा तो मेरा,
हाथ झटकते एक बच्ची बोली,
"बदमाशी नहीं! मना है न?"
उस बच्ची ने यों कहा था के
माँ की बचपन की डाँट याद आ गई।
सोचते उलझते बस बैठा रहा,
ज़रा भी हिलता तो डाँट पड़ जाती।
चाय की खुशबु के बीच फिर,
एक साथ कई आवाजें आईं,
हँसी-ठहाकों पायल-चूड़ियों के बीच,
सरकते फर्नीचर और गिलास।
बच्ची ने मेरे कान में आ धमकाया-
"हिले या बोले तो अच्छा नहीं होगा!"
और आकर मेरी गोद में बैठ गई।
तुम जाने कहाँ चली गई थी?

"अरे! भई किसे बाँध रखा है?"
मेरे पसीने छूट गए-
आवाज़ तो पिताजी की थी।
"कोई नई शरारत लगती है।"
माँ भी!
"अरे ये कौन है छुटकी?"
बेड़ा गर्क, तुम्हारे बाबूजी!
मह बोल न पडूँ सोचके,
गोद बैठी छुटकी ने मेरे
मूँह पर हाथ रख दिया था।
"हे भगवान्! मिली! ओ मिली!"
रही सही कसर भी निकल गई,
तुम्हारी अम्मा जी भी आ गईं।

छुटकी खिलखिला रही थी,
पर मेरा मूँह नहीं छोड़ा था।
मोगरा और चम्पा की महक
और रेशमी साड़ी की आहट
के बीच सब चुप हो गए थे।
माँ पिताजी ने आशीर्वाद दीए
और अम्मा बाबूजी, चौंक के
सिवाए 'मिली' और 'साड़ी' के
और कुछ न कह सके।
छुटकी मेरी गोद से उतर गई
और तुमने मेरे पीछे से आकर
मेरी पट्टी खोल दी और कहा-
"आँखें मत खोलना अभी"
फिर भाग कर मेरे सामने आई
"हाँ, अब खोलो।"
हमेशा जीन्स-टॉप पहनने वाली,
आज अचानक रेशमी साड़ी में लिपटी,
बाल बनाए, फूलों से सजाए,
आँखों में काजल लगाए,
पलकें झुकाए शर्माती हुई सी
सामने खड़ी थी।
लफ्ज़ क्या,
मेरी आवाज़ ही गुम हो गई थी।
इस से पहले की कोई कुछ कहता,
तुमने मेरी आँखों में देखा और
इक शरारती शर्म से मुस्कुराते हुए पुछा,

"मुझ से शादी करोगे?"






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