Wednesday, May 13, 2015

बातूनी

बड़ी मेहनत से फिर
थकान बोई थी दिन भर,
चंद झपकियों के अलावा
रात भर कुछ उगा ही नहीं।  


हर कोशिश के बावजूद
साँसे पूरी पड़ती ही नहीं,
रोज़ झाड़ लेता हूँ ज़हन
जमी धूल पर हटती नहीं।


बंद पलकों के बावजूद  
बड़ा कुछ दीखता है,
बंद कानों में भी
वो शोर थमता नहीं।


नींद भी तो बड़ी बातूनी है
बोलती ही रहती है बस  
कमबख़्त,
सोने ज़रा भी देती नहीं ।

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