"पत्थर की हो गई है,
एक आँसू ही बहा दे।"
यही कहा करते थे सब,
कोई तरस खाके तो
कोई ताना मारते कहता था।
ये मगर कोई नहीं जानता था
के उसकी आँखें
हमेशा से बाँझ न थी।
पहले तो ख़ुशी में भी
खूब छलक पडतीं थीं।
इक रोज़ वो चला गया।
क्यों, कहाँ- पता नहीं;
न कोई बात, न चिट्ठी
न अलविदा ही-
बस चला गया।
समझ कोशिशों से दूर
और सुकून नाम को भी नहीं।
सब्र, इख्तियार, भरोसा
एक-एक कर
फिकरों, तंज़ ओ तानों
और ज़माने की खोखली कहानियों
की ठोकर में सब ढेह गए और
आँखों के बाँध कुछ यूँ टूटे
के सब बह के बंजर छूट गया।
हाँ,
वो पत्थर ही हो गई है,
बाहर से वो पत्थर ही हो गयी है।
अंतर उसका अब
एक उफान पे है।
"बिना सोचे, बिना कहे वो गया,
क्या उसके दिल ने उसे नहीं रोका
बेदर्द वो, बेरहम वो, बेजज़्बा वो
तो मैं पत्थर क्यों?
वो प्यार, वो वक़्त,
वो यादें, वो हँसी सब
उसने भुलाए
तो मैं पत्थर क्यों?
मैंने तो बस प्यार किया था,
अपनी हँसी बाँटी थी,
कुछ माँगा नहीं था।
फिर ज़िल्लत मुझे क्यों मिले?
हाँ मेरी आँखे बाँझ हो गईं हैं,
पर सिर्फ उसके लिए।
एक कतरा भी उसपे
अब बर्बाद न होगा।
जो पत्थर का लोगों ने
मुझे बना दिया है उसे
तराश के अब बहार
मैं नई सी बन निकलूँगी।
ज़माने का पुराना शीशा तोड़
खुद का इक नया बनवाया है,
अपनी नई काया को
अब बस उसी में देखूँगी।"
Good, positive ending. Keep it up.
ReplyDeleteThanks a lot Ma :)
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