Sunday, August 14, 2011

शीशी भर बरसात

सावन के कई,
खुश्क दिनों के बाद,
आखिरकार,
बादलों का सब्र टूटा था.

आँगन की,
सूखी मिटटी पर
बूँदें सौंधी महेकती, 
छींटें बना रहीं थीं.
सब धुल के,
नया सा हो रहा था.
प्यासी कुदरत को
जैसे चैन मिल रहा था.

बरामदे की
टीन की छत से,
पानी गिर रहा था.
यूँ लगता था के,
दरवाज़े के बाहर
पानी की लड़ियाँ हों.
कभी सीधी,
कभी लहराती हुई,
जैसे अपनी किसी
पुरानी धुन पे
नाच रहीं हों.

पड़ोस के घर के
फिल्टर कॉफ़ी की महक,
बारिश की खुशबू में
बेझिझक घुल रही थी.
वो नशीली महक मुझे,
पुरानी फिल्मों के
बरसाती गानों की
याद दिला रही थी.

इतने में,
पांच छे साल का,
पड़ोस का बच्चा,
हाथ में कुछ लिए,
सर पर छतरी ताने,
नंगे पाँव,
बारिश में चला आया.

उसके हाथ में,
एक छोटी शीशी थी.
ढक्कन निकाल के,
शीशी बारिश में रख दी.
जब वो भरी तो,
बड़े ध्यान से ढक्कन लगाया.
फिर 'माँ' की पुकार लगाता,
दौड़के घर भागा.
रसोई में,
माँ के पास से आवाज़ आई-
"माँ देखो!
तुम्हारे लिए में,
शीशी भरके बरसात लाया हूँ!"


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