Wednesday, August 3, 2011

दोराहा

I happened to remember today,Frost's The Road Less Taken. Was tempted to write a few lines about the same. Hope it inspires even a fraction of the yearning that Frost's did.


भीड़ एक ओर से बुलाती थी,
एक ओर सूनी सड़क इंतज़ार में है.

भीड़ की पुचकार,
कदम उस ओर खींचती.
सूनी सड़क की आहें,
मन को उस ओर रिझातीं.

भीड़ की रंग-ओ-उमंग से आँखें चमक उठतीं,
सूनी सड़क का शांत ठहराव दिल को सुकूँ देता.

प्यार भरी पुचकार,
या अल्साई आहें?
चटक रंगों की चमक,
या ठहरा शाँत सुकूँ? 

उस अनिश्चित दोराहे पर खड़े, आँखें मूंदे,
कुछ बिना सोचे बस अपने कदम बढ़ा दिए.

चार क़दमों पर चहल-पहल,
अगले चार पर एकान्त.
फिर चार पर भागता संघर्ष,
बाद के चार पर चैन की सांस.

अब हर दूसरे चार कदम धीमे होते गए,
और धीमे होते होते मैं बिलकुल रुक गया.

आँखें खोली तो,
मैं सूनी सड़क पे था.
ताज़ी गहरी सांस थी,
दिल में नया सुकूँ था.

पल भर को लगा की वो रंग-ओ-चमक अब न दिखेगी,
पर  वो चमक, इस सुकूँ के सामने फीकी पड़ जाएगी.

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