Thursday, August 4, 2011

कल

आज क्यों न यूं सोचें,
के शायद वो कल ही न मिले
हमें कुछ और सोचने की लिए.

कुछ उन खतों के बारे में,
जिनके जवाब टाले कहके,
के कल लिख लेंगे.

ज़रा उस ढीली चिटकनी का,
जो आज तक बंद नहीं करते,
ये सोचकर के कल सुधार लेंगे.

उन भूले बाग़ों का,
जिनके फूल न देख पाए,
के टेहेलने कल जाएँगे.

थोड़ा उन गर्मियों का,
जब तालाब ताकते रह गए,
 के छलांग कल लगाएँगे.

दस पैसे की हड़बड़ी में,
सालों पहले की बस टिकट का,
शुक्रिया कल अदा करेंगे.

अंग्रेज़ी लेक्चर के बीच,
उन कांपती झिझकती पलकों से,
नज़र कल ज़रूर मिलाएँगे.

बरसती कायनात की आवाज़,
आज छाते तले से सुनकर,
कल को भीग जाएँगे.

खुश ही तो होंगे वो,
बस दो घंटे दूर रहते हैं,
माँ बाबा से कल मिल आएँगे.

सोचें ज़रा के तब क्या हो,
जब आज ही रूठ के कह दे,
जाओ, हम भी अब कल आएँगे. .



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