कुछ रोज़ से यूँ लग रहा है
मैं लगातार एक सीढ़ी चढ़ रहा हूँ,
एक ऐसी सीढ़ी जिसका छोर
कभी गहरे अँधेरे
कभी चुंधियाते उजाले में
गुम सा रहता है।
कभी ऊपर उठने का
झाँसा सा हो जाता है,
कभी यूँ लगता है वो सीढ़ी
मैं ज्यूँ-ज्यूँ चढ़ता जाता हूँ
त्यूँ-त्यूँ नीचे उतरती जाती है।
न जाने कब ऊपर पहुँचूँगा
क्या पता पहुँचूँ भी के नहीं,
या कुछ है भी ऊपर
नहीं पता।
किसी मशीन से,
क़दम आप ही चलते जा रहे हैं-
न सोच के बस में
न ही जज़्बातों के काबू में।
ऊबने लगा हूँ,
थकने लगा हूँ अब
इस मशीनी, बेजज़्बा
अन्धी चढ़ाई से।
जाने कब पहुँचूँगा?
जाने कब?
मैं लगातार एक सीढ़ी चढ़ रहा हूँ,
एक ऐसी सीढ़ी जिसका छोर
कभी गहरे अँधेरे
कभी चुंधियाते उजाले में
गुम सा रहता है।
कभी ऊपर उठने का
झाँसा सा हो जाता है,
कभी यूँ लगता है वो सीढ़ी
मैं ज्यूँ-ज्यूँ चढ़ता जाता हूँ
त्यूँ-त्यूँ नीचे उतरती जाती है।
न जाने कब ऊपर पहुँचूँगा
क्या पता पहुँचूँ भी के नहीं,
या कुछ है भी ऊपर
नहीं पता।
किसी मशीन से,
क़दम आप ही चलते जा रहे हैं-
न सोच के बस में
न ही जज़्बातों के काबू में।
ऊबने लगा हूँ,
थकने लगा हूँ अब
इस मशीनी, बेजज़्बा
अन्धी चढ़ाई से।
जाने कब पहुँचूँगा?
जाने कब?
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