Saturday, August 3, 2013

मोमबत्तियाँ

अँधेरा पसन्द नहीं था ज़रा भी,
मगर अक्सर
बुझा दिया करती थी घर की बत्तियाँ ।
एक एक कर हर कमरे में फिर
जलाया करती थी छोटी बड़ी मोमबत्तियाँ ।
बड़ा शौक़ था मोमबत्तियों का-
कहती थी उनकी लौ दिल सी धड़कती है, ज़िन्दा है
उन बिजली के ठंडे लाटुओं सी बेजान नहीं।

अपनी ज़िन्दा रौशनियों सी घिरी
आईने के सामने अपने बाल बनाया करती थी।
मैं अक्सर छुप छुप के देखा करता था,
तस्वीरें उतारा करता था।
साँझ सी घुलती रौशनी में
पूरा चाँद जैसे बरसाती घटाओं को
अपनी उँगलियों से तार कर रहा हो।

मेज़ की मोमबत्तियों की मद्धम लौ में
फर्श पे कोहनियों के बल लेटे,
अपनी किताबें गुनगुनाया करती थी।
मैं हमेशा टोकता-
'यूँ पढ़ोगी तो चश्मे चढ़ जाएँगे !'
सुनकर मेरा  चश्मा नाक पर ताने
मुझ पर जीभ चिढ़ाया करती थी।

छुट्टी के रोज़ कभी
हॉल का फ़र्नीचर हटा
कुकर की सीटियों के बीच मुझे
सालसा सिखाने की कोशिश करती।
चिड़कर फिर मेरे अनाड़ीपन से
ग़ुस्से से कुछ मोमबत्तियाँ
बुझा दिया करती।

मोमबत्तियाँ वो सारी अब
सिर्फ तस्वीरों में ही रौशन हैं-
दीवारों पर, मेज़ों पर,
खिड़कियों की चौखट पर,
दराज़ों, क़िताबों में
मेरे बटुए में।
कभी खाली हॉल में सालसा
कभी मेरे चश्मे में शरारत
कभी क़िताबों में नज़्में
तो कभी आईने के चेहरे
अब भी यादों में
टिमटिमा से जाते हैं।

तनहा से इस घर में
अब बिजली ही रौशन होती है
बेजान डंडे लाटुओं में।
मोमबत्तियों में यादें कहीं
पिघल के धुआँ न हो जाएँ।


4 comments:

  1. क्या बात है संबित ...........बेहतरीन प्रेम कविता ...........मुबारक हो ......अच्छी कलम है ...........धार बनाये रहो .........ढेरों आशीष .........

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    1. बहुत शुक्रिया आंटी जी :)

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