रात फिर जागते कट रही थी,
किताबें भी मुझसे ऊब चुकीं थी,
कलम मेज़ पर सुस्ता रही थी,
बालकनी के खुले दरवाज़े से
चाँदनी झिझकती झाँक रही थी।
कुर्सी ज़रा पीछे खुकाए बहार देखा
चाँद मूंह सिकोड़े पीला पड़ा हुआ था।
"क्यूँ ऐसे जागते रहते हो, तुम्हे यूँ
देख रात मुझे बुरे सपने आते हैं।"
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