Saturday, February 23, 2013

सिक्का

इक आखिरी सिक्का बचा था जेब में।
किस्मत परखने को अपनी, उसे
आसमान में उछाल दिया।

अपनी भी क्या किस्मत है देखिये,
जेबका आखिरी सिक्का भी आसमान पे
चिपक के आज खुद को चाँद कहता है।                      

Thursday, February 7, 2013

जाने कब?

कुछ रोज़ से यूँ लग रहा है
मैं लगातार एक सीढ़ी चढ़ रहा हूँ,
एक ऐसी सीढ़ी जिसका छोर
कभी गहरे अँधेरे
कभी चुंधियाते उजाले में
गुम सा रहता है।
कभी ऊपर उठने का
झाँसा सा हो जाता है,
कभी यूँ लगता है वो सीढ़ी
मैं ज्यूँ-ज्यूँ चढ़ता जाता हूँ
त्यूँ-त्यूँ नीचे उतरती जाती है।
न जाने कब ऊपर पहुँचूँगा
क्या पता पहुँचूँ भी के नहीं,
या कुछ है भी ऊपर
नहीं पता।
किसी मशीन से,
क़दम आप ही चलते जा रहे हैं-
न सोच के बस में
न ही जज़्बातों के काबू में।
ऊबने लगा हूँ,
थकने लगा हूँ अब
इस मशीनी, बेजज़्बा
अन्धी चढ़ाई से।
जाने कब पहुँचूँगा?

जाने कब?


Monday, February 4, 2013

टाइम क्या हुआ?

मुझे याद नहीं कब
मुझे यद् नहीं जब
मुझे याद नहीं तब
मुझे याद नहीं अब

के आप से पहली बार बात हुई थी।
जो याद है वो ये के,
वहाँ आप थीं,
वहीँ मैं था
भरी भीड़ में अकेला
और आपने
काँधे पे थपकी देकर
पीछे से पुछा था-
"मुआफ़ किजेगा, टाइम क्या हुआ?"


Friday, February 1, 2013

संतरे की डली सा

कच्ची रात का उगता
संतरे की डली सा वो
आधा चाँद।
आओ तुम्हे काँधों पे उठा लूँ
तुम चुपके से चुरा लेना उसे
रात की हथेली से।
आधी पहले तुम खा लेना
बाकी आधी मैं खिला दूँगा।
उठा लूँगा काँधों पे एक बार फिर,
स्याह रात के आसमाँ के सामने
तुम्हारा ये मुस्कुराता चेहरा
के संतरे की डली सा वो
आधा चाँद भी
पूरा हुआ नज़र आएगा।