Saturday, September 9, 2017

शायद

बाहर बदल रहे हैं मौसम,
क़ायनात हमेशा की तरह
सुबह-शाम सी जल बुझ रही है।
गैर इंतजारी की आमद के
इंतज़ार को गुज़ारते हुए
अपनी पुरानी सूखी नज़्मों से
मैं बारिशें ढूँढ-ढूँढ बटोर कर
वाइन की इक खाली बोतल में
उनके लफ़्ज़ निचोड़ कर मैंने
कतरा कतरा भर लिया है।
तुम्हारी बसंती साढ़ी के सीए
मलमली महीन पर्दों वाली
खिड़की की इक जानिब वो
तुम्हारा मौसमी हरे रंग का
कुशन दीवार से टेक लगाए
चटाई पर सुस्ता रहा है।
ठीक उसके बगल में मेरा कुशन
काला, हर रोज़ कल की राह देखता है।
तुम्हारे पीले रंग के कॉफ़ी मग के
साथ टूटी हैंडल का मेरा नीला कप,
इक स्टील की ट्रे पर उस
वाइन की बोतल के साथ
किरदार सा सजा है
के पर्दा अब उठे-तब उठे।
हलक बंजर धूल सा हो चला है,
जाने कब कोई तूफ़ान सब कुछ
अपनी आग़ोश में उड़ा ले जाए।
तुम आओ तो साथ एक एक
अलफ़ाज़ी बरसातों के जाम छलकें
दो साँसों से मक़ान का मौसम बदले,
दीवारों के इंतज़ार पर आखिर कर
मुट्ठी भर बूंदों में शायद घर फिर बरसे।


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