Saturday, January 19, 2013

सवाल

जिस्म कैद है इस रूह के शिकंजे में,
वो बेदर्द इसे तिल-तिल घोंट,
न मरने देती है न मारती ही है।
जाने क्या दुशमनी निकाल रही है।
कभी यूँ पँजे कसती है गर्दन पर
के जिस्म तड़प के दुआ करता है-
बस अब साँस छूट ही जाए।

रूह चालसाज़ मगर बाँध लेती है
जिस्म को आखरी साँस से।
बौखलाई आँखों से देख रहा है जिस्म-
वक़्त पे घिस-घिस के रूह
अपने नाखून तेज़ कर रही है।
आज फिर शायद सोच की तहें
कुरेद-कुरेद कर यादें उधाड़ेगी।
उधेड़ ही दे सभी एहसास और
डाल दे उस धौंकते अलाव में
के हमेशा के लिए राख हो जाएँ वो,
जिस्म महसूस न कर पाए कुछ और।

रूह मगर सर्द हैवानियत से मुस्कुराते
हर उधड़े एहसास, हर कुरेदी याद को
अलाव की लाल झुंझलाती रौशनी में
एक एक कर कतार में, उस कांपते
जिस्म के सामने नंगा सजाती रहती है।
वो आँखे मूंदे भी तो राहत नहीं मिलती;
वो धधकता मंज़र बंद पलकों के पार
खुद ब खुद उतर आता था।

अपने पंजों की हर गिरफ़्त, हर घोंट,
अपनी नाखूनों की हर चोट, उन
हैवानी होंठों की हर सर्द मुस्कान के बीच
जिस्म की हर पूछती चीख के बीच
रूह अब तक ख़ामोश थी।

जिस्म के हर सवाल, हर चीख,
हर दुहाई का जवाब रूह अब तक
सिर्फ एक ठंडी नज़र से देती थी।
आखरी साँस के फंदे से लटकते
जिस्म को रूह ने फिर देर तक घूरा
और उसके सभी सवालों के जवाब में
सिर्फ एक सवाल किया -

क्यों जनाब,
आईना देखते इतनी तकलीफ होती है?





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