Monday, November 5, 2012

अलार्म

कल रात ख्वाब देखते देखते
अचानक छींक आ गई,
ख्याल चन्द उस ख्वाब के
अँधेरे में बिखर गए।
वो कुछ सुहाना सा
जान पड़ा था ख्वाब,
सो इक मोम बत्ती लिए
अँधेरे टटोलने निकल पड़ा।
ज्यूं ज्यूं टुकड़े मिलते गए,
ख्वाब मैं अपना जोड़ता गया।
आखरी टुकड़ा बस जोड़ा ही था,
कबख्त!
सुबह छः बजे का अलार्म बज गया।
नींद चौंक कुछ यूँ खुली के
रात भर बटोरा ख्वाब वो
फिर टूटके बिखर गया।

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