Friday, April 3, 2015

हर लम्हा इक

भीड़ में भी अकेला ही लगता है,
मुर्दा उम्मीद में जलता रहता हूँ,

ज़हन से सवाल नहीं बुझता है
मिले इक ख़ता ढूँढता रहता हूँ,

पल भर को भी सुकूं न रहता है
ज़िंदा यादें काट काट फेंकता हूँ,

सूख कर आँखे नमक हो गईं हैं
आजाए नींद बस राह तकता हूँ,

साँसे तो पहले ही सिक्कों से हैं
बस ख़त्म हो सो खर्च करता हूँ,

वीरां सीने में बस चंद धड़कनें हैं
थम जाएँ बस इंतज़ार करता हूँ,

हर लम्हा इक मौत जीता हूँ मैं
हर लम्हा इक ज़िंदगी मरता हूँ। 

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