Monday, March 11, 2013

सॉरी

वो बरसाती हवा जो झोंके से छूँ गयी काँधे को कल श्याम 

तुम उतर रही थी सीढ़ियाँ अपने घर की जब उस मई की रोज़ 
और मैं अखबार लौटाने तुम्हारे पापा को ऊपर आ रहा था; 
भीगी जुल्फें अपनी झटकी थी तुमने, हिन्ना सी महकती 
कुछ छींटे गिरी थीं काँधे पे मेरे जिन्हें लहराके गुज़रते 
तुम्हारे उस पीले दुप्पटे ने सहलाके पोंछ लिया था।
मैं पलटा और तुम्हे भी पलटते देखा तभी और दोनों ही ने 
एक साथ ही कहा था- "सॉरी! "

वो बरसाती हवा जो झोंके से छूँ गयी काँधे को कल श्याम 
याद दिला गयी वो हिन्ना सी महकती उस रोज़ की सॉरी।

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