Monday, November 14, 2011

रात का चूल्हा

रात के चूल्हे में कल
नींद सारी जलती रही.
काँच से ठन्डे धुंएँ में
मैं जागे काँपता  रहा.

जगा हूँ जब तो सोचा
के कुछ ख़याल पका लूं.
तपिश कुछ यूँ थी लेकिन
जो डाला वो जलता गया.

कोयला बने उन ख़यालों की
सर्द राख ठन्डे धुंएँ संग उठी.
रात के चूल्हे में जलती नींद
ताकते मैं काँपते जागता रहा.

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