Wednesday, November 30, 2011

कुछ हवा लगे

कागज़ अलमारी में पड़े पुराने हो गए हैं.
सुफैद अँधेरे में घुटके ज़र्द सा पड़ गया है.
वो कहते हैं, के भले लिखो न सही हम पे
मोड़ फिरकी ही बना लो के कुछ हवा लगे.

Tuesday, November 29, 2011

बैर

क्यों बैर करूँ मैं तुझसे, तू कौन, जो मैं न हूँ.
पर बैर करूँ मैं तुझसे, जब तू ना, तो मैं ना हूँ.

Monday, November 28, 2011

कैद ख्वाब

इक कैद ख्वाब था दिल में मेरे.
रोज़ भागने की कोशिश करता.
रात नींद के अँधेरे में आखिर,
कल ख्वाब वो आज़ाद हो गया.

Sunday, November 27, 2011

बेवक्ती नींद

पिछले कुछ इतवारों जैसे
इस इतवार की शुरुआत भी
लगभग दोपहर से हुई है.
मेरी बेवक्ती नींद लेकिन
कुछ और सोना चाहती है.
इसके भी बड़े नखरे हैं.
रात देर से आना और
देर सुबह तक न जाना.
बिलकुल उस माशूका सी
जिससे न निभाया जाये
न जिसको छोड़ा ही जाये.
कमबख्त कुछ यूँ बिगड़ी है
लाख़ सुधारते नहीं सुधरती.
अब जो ग़लती की है सो
भुगतना भी खुद ही को है.
पर इतवार है आज आखिर,
तो इसमें हर्ज़ ही क्या है के
वो कुछ और सोना चाहती है.


Saturday, November 26, 2011

आज छुट्टी है

आज भूक कुछ जल्दी लगी है
सुबह नाश्ता करना भूल गया.
देर हो गई थी दफ्तर के लिए
पर आज छुट्टी है भूल गया.

Friday, November 25, 2011

जाड़े

शुरूआती जाड़ों की सर्द शामें हैं
गर्म कपड़ों को जगाने का वक़्त है.
एक आलसी सा दिन और बीता
अब घर को जाने का वक़्त है.


Thursday, November 24, 2011

झूमर वाला बंद कमरा

चलो चंद बातें करें
बैठ चाँद के नीचे,
काँच के झूमर वाले
बंद कमरे के पीछे।

ज़रा तुक्के लगाएँ
के कमरे में क्या है,
झूमर तो सुना है
क्या कुछ और नया है?

कहते हैं वो कमरा कभी
घर का मेहमानखाना था,
कभी एक नवाब पधारे थे
झूमर का तब से लगाना था।

मखमली कालीन हों,
परदे जैसे, रेशम के थान
शायद चाँदी का इक टी-सेट,
और पीतल का पानदान।

बस एक ही रात हुई थी
उन नवाब को रुके वहाँ
सुबह बंद कमरे ही से वो
जाने गायब हुए थे कहाँ।

हवेली की उम्र बहुत थी,
बात भी पुरानी थी मगर
नवाब का आज तक भी
न ठिकाना, न कोई खबर।

जाने क्यों वो कमरा
आज भी बंद रहता है.
कमरा मनहूस है, ऐसा
रामू काका कहता है।

इसमें कितना सही और
जाने कितनी कल्पना है
क्या इक काला सच या
बस लोगों का बचपना है।

अब खैर, वो जो भी है सो है,
आओ हम बैठें चाँद के नीचे
और चंद बातें करें काँच के उस
झूमर वाले बंद कमरे के पीछे।


Wednesday, November 23, 2011

क्यों सोते हैं?

खुली आँख के सपने
कहते हैं सच होते हैं.
गर ये बात सच है,
तो लोग क्यों सोते हैं?

Tuesday, November 22, 2011

आह

आह उठते उठते दिल से
अचानक क्यों रुक सी गई.
क्या पता, शायद आपके
आमद की खबर मिल गई.

अब जो दब गयी है वो
तो कभी निकलेगी ज़रूर.
जो आपके ग़म में ठंडी थी,
आह वो साँस बनेगी ज़रूर.

बीज

एक बीज छाँव का बोया है
जो एक दिन एक पेड़ बनेगा.
आज धुप में जो तू सोया है
फल छाँव के कल तू चखेगा.

Sunday, November 20, 2011

कहें

आप अपनी बात किसी को कहें
फिर वो अपनी बात किसी से कहें.
बात तो आखिर आपस की ही है,
क्यों  न आप उनसे, वो आपसे कहें.

Saturday, November 19, 2011

शिकारा

रात की काली घनी ज़ुल्फों में
अनगिनत से हीरे जड़े हुए थे।
ज़मीन पर इक शबनमी झील
वक़्त के साथ थम सी गई थी।
आसमानी चादर की सिलवटें
झील के रेशम पर पड़ रहीं थी।
एक शिकारा झील पर हौले से
चुप-चाप खुद ही बढ़ा जाता था।
दो जिस्म उस पर यूँ सवार थे के
बिजली-आन्धी की आवाज़ भी
उन दो साँसों को न छेड़ पातीं।
वो नज़रें एक दूजे में यूँ गुम के
कोई तूफाँ भी उन्हें टोक न पाता।
हथेलियाँ भी कुछ ऐसी बंधीं हुईं
के शायद क़यामत में भी न छूटें।
उन घुलती रूहों की सिकी आँहों में
समां पिघल-पिघल सा जा रहा था।
उन धड़कनों की ज़िंदा मौज पर झूम
ज़मीन भी उछल फ़लक चूमने लगी थी।
और इस तिलिस्मी कायनात के बीच
झील पे तैरता वो शिकारा, उस रुके
वक्त की उफ़क़ में गुम हुआ जा रहा था।


Friday, November 18, 2011

बेवजह

आदत क्यों नहीं पड़ती कुछ चीज़ों की कभी,
जब के बेवजह ही कुछ बातें दोहराते रहते हैं.

Thursday, November 17, 2011

पत्ते

लगभग जाड़ों सी
पतझड़ की सुबह.
टहलते पैरों तले
सूखे ओसीले पत्ते,
चरमराते कहते हैं.

"यूँ नन्गे पाँव अब
और न टहला कीजे.
मौसम बदल रहा है,
सर्दी लग जाएगी."


Wednesday, November 16, 2011

बात ये

दिन आज का ये उन दिनों सा है
जब सोच काम से मुकर जाती है.
क्या लिखूं कुछ सूझ नहीं रहा है
चलो, बात ये, यहीं छोड़ी जाती है.

Tuesday, November 15, 2011

अक्सर

मैं जो अक्सर कहा करता हूँ
भूल जाया करता हूँ, अक्सर.
याद रखने की कोशिश में भी
अक्सर नाकाम रहा करता हूँ.

यूँ भूलते रहने में भी तो
अक्सर, मज़ा आया करता है.

Monday, November 14, 2011

रात का चूल्हा

रात के चूल्हे में कल
नींद सारी जलती रही.
काँच से ठन्डे धुंएँ में
मैं जागे काँपता  रहा.

जगा हूँ जब तो सोचा
के कुछ ख़याल पका लूं.
तपिश कुछ यूँ थी लेकिन
जो डाला वो जलता गया.

कोयला बने उन ख़यालों की
सर्द राख ठन्डे धुंएँ संग उठी.
रात के चूल्हे में जलती नींद
ताकते मैं काँपते जागता रहा.

Sunday, November 13, 2011

जाने कौन था

वो जाने कौन था जो आकर
ग़म कुछ ज़रा कम कर गया.
गया तो, एक सूखा आँसू भी
यादों की मिट्टी नम कर गया.

उस मिट्टी से जो खुशबु उठे वो
आहें और गहरी कर देती है.
जो चौखट पीछे छोड़ गया  वो
निगाहें वहीँ ठहरी कर देती है.

निगाहें भी ठहर-ठहर अब
कुछ पथराने सी लगी हैं.
सच्चाईयां मानने को सोच भी
कुछ कतराने सी लगी है.

कहीं आ ही जाए, इंतज़ार में
कुछ और किया नहीं जाता.
इक ग़लत या खुश फहमी है
और फैसला लिया नहीं जाता.

Saturday, November 12, 2011

निकाह

सज-संवर रेशम-पोश
एक ग़ज़ल चली है,
उसकी नज़्म के निकाह
की महफ़िल सजी है.

Friday, November 11, 2011

कल की बात

कबसे बैठा हूँ मेज़ पर
डायरी सामने खुली पड़ी है
पन्ना दो साल पुराना है
पर बात जो वो कहता है
कल ही की तो लगती है.
वो कहता है के तुम अब
मुझसे और न मिलोगे, तुम
मुझसे और कुछ कहोगे नहीं
न और हँसोगे मुझ पर और
न कोरे गुस्से से डाँटा करोगे.
रह-रह के यूँ लगता है बस
अब चाय की प्याली लिए
कन्धे पे हाथ रख कहोगी-
"चाय और गरम नहीं करुँगी!"

हाँ, तुम्हे गुज़रे,
आज पूरे दो साल हो गए.
पर बात अब भी
वो कल ही की लगती है.

Thursday, November 10, 2011

अकेला

एक बड़े मैदान में खड़ा अकेला
एक पतला सा पेड़ सोच रहा है
कोई दोस्त मेरा कुर्सी बना कोई
दरवाज़ा, कोई कागज़, कोई बना
था घर किसीका और कोई जल
चिता में, कभी चूल्हे में राख हुआ.
अब, मैं अकेला बचा, खड़ा यहाँ
अक्सर अपना अंजाम सोचता हूँ.

Wednesday, November 9, 2011

रात एक देर

दिन अब भी गरम ही हैं
पर रातें ठंडी होने लगी हैं.
हलकी-सौंधी आंच के साथ
बातें लम्बी होने लगी हैं.

छुट्टियों के दिन अब ज़रा
देर ही से शुरू हुआ करेंगे.
गप्पों के साथ रात हाथ में
कॉफ़ी के मग हुआ करेंगे.

कभी पुरानी फिल्मों के साथ
रातें अपनी देर किया करेंगे.
कभी किताबों के पन्नों संग
सुबह तक बात किया करेंगे.

शायद किसी दिन तुम्हे एक
कागज़ी ख़त लिखा लिया करेंगे.
मगर फिर बीच में ही उक्ता
तुम्हे फोन कर लिया करेंगे.

फिर फोन रखके कुछ वक़्त
दीवार ताकते ये सोचा करेंगे,
कब आपके और कॉफ़ी के साथ
बैठ रात एक देर किया करेंगे.

Tuesday, November 8, 2011

मिलो

मिलेंगे सोच जब मिलें, लज्ज़त बातों का कम आता है.
राहें इत्तेफाक़न जब मिलें, मज़ा गुफ्तगू का तब आता है.
रोज़ सुबह सोचता हूँ के, तुमसे कहूं, आज श्याम मिलो.
कहता नहीं पर सोच, के तुम इत्तेफाक़न, आज श्याम मिलो.

Monday, November 7, 2011

नाम ख़ुशी है

लहर किनारे को
प्यार से
साहिल पुकारती है.
कहती है
ये नाम बेहतर है.

साहिल लहर को
प्यार से
मौज पुकारता है
कहता है
ये नाम ख़ुशी है.

Sunday, November 6, 2011

नाराज़गी

क्यों ऐसे उखड़े ख़फ़ा से हो
नाराज़गी की वजह क्या है?
मुझे भी तो कहो के आखिर
नाराज़गी की वजह क्या है.

Saturday, November 5, 2011

चश्मे

अरमान कुछ काँच में ढाले,
जिनके चश्मे बना लिए हैं.
दुनिया सारी अब मुझे, अपने
अरमानों के रंग में दिखती है.

Friday, November 4, 2011

सब सोए हैं

दिमाग, ज़हन, आचार, विचार  
थक हार  के सब जा सोए हैं.
दर्द सा जम गया है हाथों में
के आज कपड़े बहुत धोए हैं.

Thursday, November 3, 2011

मुशायरा

बीती रात का ख्वाब एक मुशायरा थी
तुम्हारे संग बीते पल वहां पर शायर थे.
हर नज़्म हर एक लम्हे का वाक़िया थी,
सुनने वाले सिर्फ, मैं और मेरे जज़्बात थे.



Wednesday, November 2, 2011

एहसान

नज़र भर देख चला जाउँगा,
एक बार खिड़की पे तो आओ.
मुझे देख न सही, कमस्कम
इस सुहानी श्याम पे मुस्काओ.

तुम शायद जानो न जानो,
तुम्हारा शहर छोड़ रहा हूँ.
मुझे यहाँ बांधे रखें जो वो
कच्चे-पक्के धागे तोड़ रहा हूँ.

एक एक कर सारे धागे तोड़े
बस ये आखरी टूटता नहीं.
के आज जाकर कह दूं तुम्हे,
सोचा कई बार, पर हुआ नहीं.

खैर, अब जो जा रहा हूँ मैं तो
कहके भी तुमसे क्या होगा.
बस एक बार देख मुस्कुरा दो  
तो तुम्हारा बड़ा एहसान होगा.




Tuesday, November 1, 2011

बात, वो कल की है

एक बात कहूं तुमसे,
बात मगर कल की है

खैर जाने ही दो उसे,
बात तो ये कल की है.

"अब कह भी दो, तो क्या
गर बात वो कल की है."

अब आज कहके क्या फायदा
बात तो आखिर कल की है.

"यूँ छेड़ के बात न छोड़ो,
बात भले वो कल की है."

"कुछ तो ज़हन में है तुम्हारे, बस
कह दो  वो बात जो कल की है"

ये आखें, हँसी, ज़िद, ये गुस्सा सब 
भा गए, पर वो बात कल की है. 

आगे की फिर कभी कहूँगा,
वो बात भी फिर कल की है.