लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं
के मैं जूते क्यों नहीं पहनता.
वैसे इस सवाल का जवाब मैं
जब जैसा सूझे वैसा दे देता हूँ.
पर कभी खुद बैठ के सोचूं
तो कुछ वाजिब नहीं सूझता.
शायद जूते मुझे अपने उस
पुराने स्कूल की याद दिलाते हैं
जो मुझे कभी पसंद नहीं था.
जूते मुझे उस 'खेल-दिवस' के
ज़बरदस्ती की कदम-ताल
और परेड की याद दिलाते हैं.
जूते मुझे उन तंग बंद से
कमरों की तरह लगते हैं
जिनमे न रौशनी है न हवा.
ऐसे कमरे जो रहने वाले को
घोट सिकोड़ के बस अपने
अन्दर जकड़े रखा करते हैं.
जूतों की कड़कड़ाहट के बदले
मेरे लिए तो अपनी मामूली
चप्पलों की चपत ही अच्छी.
बिलकुल खुला, हवादार और
हमेशा रौशन ये कमरा जहाँ
हर वक़्त बेफिक्री की साँसें हैं.