Saturday, October 1, 2011

अकेला

दिन भर दफ्तरी बन, श्याम दोस्तों संग ज़रा बातें हो जातीं हैं.
रात घर लौटते मगर सिर्फ किताबें हैं जो राह ताकते रहती हैं.
उनसे गुफ्तगू मगर एक तरफ़ा ही होती है- वो बोलें मैं सुनता हूँ.
अकेला आदमी हूँ, कभी यूँ भी लगता है के मैं कहूँ कोई और सुने.

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