इत्तेफाक़न काम से घर जल्दी लौटा था,
क्यों न आज बाग़ में टेहेलने जाऊँ.
अपने सबसे हवादार कपड़े पहने,
आधी घिसी हरी चप्पलें डाली,
और किसी पलटन के जवान सा,
हात हिलाता बाग़ की ओर चल पड़ा.
बीच अप्रैल की वो शाम थी,
हल्की हवा में चम्पा की खुशबू थी.
कोई ख़ास बाग़ नहीं था हमारा,
बड़े शहरों के छोटे मोहल्लों जैसा,
हरे मैदान में यहाँ वहां कुछ पेड़,
कुछ फूल, एक फव्वारा, एक पगडण्डी.
छोटा, मगर खुश लगता था हमारा बाग़.
लोग भी कम ही आते थे-
ज्यादातर बुज़ुर्ग, कुछ इक्का-दुक्का जवान.
उस रोज़ भी सब ऐसा ही जान पड़ता था.
पर पगडण्डी के चौथे चक्कर पे मैंने देखा,
आज दो बच्चे अपनी माँ के साथ आए हैं.
उम्र चार या पाँच की होगी उनकी.
छोटी भैय्या को दौड़ा रही है,
भैय्या खिल्ली उड़ाता, रुकता भागता,
इनके बीच माँ दोनों की सुलह को
तरसती, थक के घास पे बैठ गयी है.
मेरे भी सैर के कुछ दस चक्कर हो चुके थे,
थक के, पेड़ों तले की पुलिया पे बैठ गया.
बैठे-बैठे बच्चों की उछल कूद देख रहा था-
भैय्या भाग के मेरी ओर आता और लौट जाता.
मज़े से मैं भी हलके-हलके मुस्कुरा रहा था के
भैय्या अचानक भाग के मेरे बगल में आ बैठा.
मैंने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा,
शायद मेरी दाढ़ी मूछ देख पहले घबराया हो,
पर एक हल्की, शर्मीली हसी चेहरे पे आई,
और देखते ही पूरा चेहरा खिलखिला उठा.
अचानक मेरे आस्तीन का सहारा लिए,
मेरे कंधे हाथ रख, मेरे बगल में खड़ा हो गया.
कुछ देर बड़े ग़ौर से, चश्मे के पार मेरी आँखों में देखा,
मैं ज़रा चौंकी नज़रों से मुस्कुराते हुए उसे देख रहा था.
उसने अचानक खिल्खिलाके मुझे अपने गले लगा लिया,
ज़रा पीछे होके मुझे देखा और हसके नीचे कूद पड़ा.
कुछ देर मैं समझ ही न सका के क्या हुआ,
फिर उसे हस्ते हुए अपनी माँ की और भागता देखा.
सोच में गुम, मैं अपने घर की ओर चला पड़ा.
एक अर्सा हुआ, मैं अकेले रहता था,
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर भर की ज़िन्दगी थी.
इतवार भी सोने-सफाई में निकल जाते थे.
पर आज की बेवक्त इस सैर ने याद दिलाया,
इस ढर्रे के पार, मेरे अन्दर, अब भी कुछ मासूम है.