Wednesday, August 31, 2011

पसंद

एक ख़त लिखने बैठे हैं,
कलम खाली है, दवात  नहीं.
स्याही कुछ चार रंगों में है,
पसंद आपकी पर याद नहीं.

Tuesday, August 30, 2011

बोल बोल

हवा सी हलके बोल बोल,
लफ्ज़ हर एक नाप तोल.
जान, इक इक का है मोल,
राज़ हर रुक रुक के खोल.

शीशा आज न साफ़ सही,
हर बात भले ही अनकही.
जो दिल में उसने छुपा रखी,
फिर चीख कहेगा  खुद वही.

Monday, August 29, 2011

बूँद बूँद

ज़िन्दगी बूँद बूँद टपकते पानी सी,
लगे भीगी ठंडी चमकते पारे जैसी.
 
हाथ जितना बटोरो उतनी फिसलती,
जो थोड़ी बटोरो तो जल्द ही छलकती.
 
हर बूँद गिरने से पहले, उसका ज़ायका चखो,
बस बूँद एक भी ज़ाया न टपकें, ख्याल रखो.    
 

इरादा

पलकों पे कुछ रातों का बोझ है,
आँखें उनके तले अन्दर दबी हुई हैं.
बस दिमाग अब जवाब देने को है,
कुछ न कहो, इरादा मेरा सोने को है.

Saturday, August 27, 2011

भरम

मानुस मानस कहत चला, सकल पृथ्वी परम जनम.
मानस मानुस मार भला, कहूँ सब कुछ अंत भरम.


Friday, August 26, 2011

मंज़िल अपने माने

हर अगले कदम पर दम भरते हैं,
के अगले कदम पर बेदम न हों.
पर बैठ कुछ पल दम  नहीं लेते हैं,
कहीं मंज़िल पे पहुँचते देर न हो.

भागते हांफते हुए चलो पहुँच ही गए,
मंज़िल के माने पर सिर्फ किताबी रहे.
जो गर सफ़र फुरसत से किया होता,
तो मंज़िल अपने माने खुद ही कहे.

Thursday, August 25, 2011

शर्म

दो गोरे गोरे गालों पर,
महीन से गड्ढे पड़ते हैं.
जब सुर्ख जुडवा होंठ वो,
यूँ शर्माके हल्के हस्ते हैं.


व्यक्त

व्यक्त किंचित शब्द, निःशब्द
सुप्त भ्रमित, जागृत स्तब्ध.
वाक्य बहुवाच गुंजित, बहुअर्थ
 मनुष्य सचेत श्रवण व्यर्थ.


Tuesday, August 23, 2011

बस, ये ही.

थकी आँखें,
थकी साँसें,
थकी धड़कन,
थका सा मन.

न आस दिखे,
न घुटन मिटे,
न चैन पड़े,
न ही राह सूझे.

इक कतरा आंसू,
इक  छोटी सिसकी,
इक हल्का दिल,
इक शांत सा मन.

बस, ये ही.

Monday, August 22, 2011

हर मौसम का पहला दिन

हर मौसम का पहला दिन,
मैंने एक एक लिफ़ाफ़े में,
तुमसे छुपाके, सहेज संभाल
तुम्हारी अलमारी में रखा है।

तुम्हारी सालगिरह पर कल,
पिछले साल साथ गुज़ारे
हर मौसम का पहला दिन,
तुम्हे, तोह्फे में देना चाहता हूँ।

आहिस्ता शबनमी हाथों से खोलना
कहीं छूटती हँसी हँसते भाग न जाए
या कबके रोके आँसू बहते निकलते
कहीं पुरानी कड़वाहटें न बिखेर जाएँ।

दो चीज़ें मगर ज़रूर फूट निकलेंगीं, क्यों कि
            न गले लग जाने की और न ही प्यार की 
            कभी उम्र गुज़रती है।

Sunday, August 21, 2011

याद भी डाक से आया करती

सोचो गर याद भी डाक से आया करती,
और डाकिये चिट्ठी के साथ याद भी बाँटते.
हफ्ते भर चलो सबको यादें पहुँचती होती,
पर छुट्टी इतवार पे क्या कोई याद न आती?

कहानी

लिख लिख आखर सबद बना,सबद सबद जुड़ बाणी.
बाणी कह सुन कथा भई, और कह कह कथा कहानी.

Friday, August 19, 2011

कुछ चन्द ज़रा थोड़े

कुछ चन्द ज़रा थोड़े
लावारिस से ख़याल,
आज राह चलते
अचानक से मिल गए.

कुछ ने कहा-
"बड़े उक्ता से गए हैं,
साथ ले लो हमें."

चन्द बोले-
"कुछ तो अब,
नया सा चाहिए."

ज़रा ने पुछा-
"क्यों भाई साहब,
आप क्या कहते हैं?"

और बाकी थोड़े
उनके साथ खड़े,
सर हिला रहे थे.

अचानक फिर,
हॉर्न की आवाज़ हुई,
और नज़र
हरी बत्ती पर पड़ी.

हफ्ते का बुध,
और दफ्तर का
बेमाना सा एक,
थका लम्बा दिन था.

खुद से ऐसा कुछ,
अलग धलग सा
के अपने ही ख़याल,
अपनी पहचान बताते थे.

Thursday, August 18, 2011

पता नहीं

कुछ तो खोजते हैं लोग,
क्या, खुदको पता नहीं.

वो कहते हैं भगवान् को,
क्यों, खुदको पता नहीं.

भगवान् मिला तो क्या,
आगे, खुदको पता नहीं.

शायद उसका नाम पूछें,
क्या, खुद उसको भी पता नहीं. 

तुम तो नहीं?

जो गुज़र रहा, कहते हैं वक़्त है.
जो थम सा गया, वो वक़्त नहीं?
जो अकेली राह चला, वो मैं था.
जो राह मिले, कहीं तुम तो नहीं?



Tuesday, August 16, 2011

मेहरबानी

रुक के मुड़ के लोगों ने आज, 
गौर फ़रमाया चौंक के हम पे.
कुदरत अलग सी पेश आई आज,
की मेहरबानी  छींकों की हम पे.


Monday, August 15, 2011

परोसा है...

एक थाली सजाकर आज,
अपने कुछ ख़्वाब परोसे हैं.
साथ कटोरी में कुछ ज़रा,
अरमाँ भी दाल रखे हैं.
आरज़ू भर गिलास साथ में,
थाली के बगल रख छोड़ी है.
और इक छोटी तश्तरी में थोड़ा,
शरारत का अचार रखा है.

खुशगवार मन बनाके,
इत्मिनान से बैठ कर,
एक एक कर सब चखना.
जो कुछ अच्छा लगे तो,
जी भरके लुत्फ़ उठाना.

हाथ मूंह धोकर फिर, एक
छोटे सवाल का जवाब देना.
जो ग़र आज का परोसा,
आपको कुछ पसंद सा आया हो,
तो क्या इजाज़त है मुझे,
के उम्र भर यूँ ही,
आपको परोसता रहूँ?


Sunday, August 14, 2011

शीशी भर बरसात

सावन के कई,
खुश्क दिनों के बाद,
आखिरकार,
बादलों का सब्र टूटा था.

आँगन की,
सूखी मिटटी पर
बूँदें सौंधी महेकती, 
छींटें बना रहीं थीं.
सब धुल के,
नया सा हो रहा था.
प्यासी कुदरत को
जैसे चैन मिल रहा था.

बरामदे की
टीन की छत से,
पानी गिर रहा था.
यूँ लगता था के,
दरवाज़े के बाहर
पानी की लड़ियाँ हों.
कभी सीधी,
कभी लहराती हुई,
जैसे अपनी किसी
पुरानी धुन पे
नाच रहीं हों.

पड़ोस के घर के
फिल्टर कॉफ़ी की महक,
बारिश की खुशबू में
बेझिझक घुल रही थी.
वो नशीली महक मुझे,
पुरानी फिल्मों के
बरसाती गानों की
याद दिला रही थी.

इतने में,
पांच छे साल का,
पड़ोस का बच्चा,
हाथ में कुछ लिए,
सर पर छतरी ताने,
नंगे पाँव,
बारिश में चला आया.

उसके हाथ में,
एक छोटी शीशी थी.
ढक्कन निकाल के,
शीशी बारिश में रख दी.
जब वो भरी तो,
बड़े ध्यान से ढक्कन लगाया.
फिर 'माँ' की पुकार लगाता,
दौड़के घर भागा.
रसोई में,
माँ के पास से आवाज़ आई-
"माँ देखो!
तुम्हारे लिए में,
शीशी भरके बरसात लाया हूँ!"


Saturday, August 13, 2011

ये साथी मेरे

मेरी ख़ामोशी पे वो
नाराज़ नहीं होतीं हैं.
फिर भी पर मुझसे  वो,
हमेशा ही बोलती हैं.

बचपन से ही मेरे, हर
सफ़र में साथ रहीं हैं.
रास्ते मंज़िलों के पर,
सवाल पूछतीं नहीं हैं.

मौके ख़ुशी के हों,
इन से बातें हुईं हैं.
वक़्त ग़म का हो,
इन्होंने पनाह दी है.

इनकी छुअन का एहसास,
उँगलियों से रूह तक जाता है.
परत दर परत इक ख़ास,
महक साँसों में छोड़ जाता है.

सिरहाने तकिये के बगल,
या फिर सीने पे  टिकाकर,
कहीं कभी यूँ ही कुछ पल,
सो गया हूँ सब भुलाकर.

है बस छोटी सी इक हसरत,
ये साथी मेरे ताहउम्र शादाब रहें.
आखरी आदाब का हो वक़्त,
तो हाथ में मेरे इक किताब रहे.

Friday, August 12, 2011

कमरा

कमरा काफ़ी पुराना है,
आज नया रंगवाया है। 
चौखट एक अरसे की है,
दरवाज़ा नया लगवाया है। 

कुछ पुराने किस्से पड़े थे,
सब झाड़ के खाली करवाए। 
फूल मेज़ पर ताज़े रखे हैं,
शायद कोई मेहमां आजाए। 

Thursday, August 11, 2011

मुआफी

वो ख़फ़ा हो आज,
बिन कहे चले गए,
मैं उलझन में,
अपनी ख़ता ढूंढता हूँ.

कहा होता क्या हुई बात,
इस तरह बिगड़ गए.
मैं फिर उलझन में,
अपनी मुआफी लिखता हूँ.

Wednesday, August 10, 2011

गश्त

खुश्क अश्कों से भीगा रुमाल कल,
रात की कच्ची बारिश में सुखाया था.
गश्त में बेहोश सूखी पलकों को,
जिससे उम्मीद से हमने सहलाया था.

के धुन्दले उफ़क पे नज़र आएगा,
ज़र्द फ़लक के इक छोर पे वो.
किसी गुम खोज की तलाश में,
इक रोज़ यहाँ से गया था जो.


खुश्क- dry;  अश्क- tears;  गश्त- vigil/patrol (meant as a wait here);  उफ़क- horizon; ज़र्द- yellow/golden;  फ़लक-sky

Tuesday, August 9, 2011

तोहफ़ा

कुछ टूटी ग़ज़लें समेटीं हैं,
चंद बिखरे नगमे बटोरे हैं। 

थोड़ी पुरानी नज़्में निकाली हैं,
और बेतुके मिस्रे टटोले हैं। 

इस सोच में ये दिन बीता है,
यूँ रात भी बीतने वाली है। 

कल तोहफ़ा इक नज़र करना है,
शहर से आप जो गुजरने वाली हैं।    

Monday, August 8, 2011

माटी

तन माटी का गढ़ा हुआ,
माटी ही की जान,

साँस बसी माटी की हवा,
है माटी ही पहचान। 

Sunday, August 7, 2011

साक़ी, मैं

मय का शौक़ मैं नहीं रखता, के साक़ी हूँ मैं,
मयखानों की खाक़ मैं मरता, कुछ बाक़ी हूँ मैं.
सैंकड़ों ग़मों और खुशियों को नशे में घुलते देखा है,
प्याले मैं  छूटा-भूला जाम है, वो हालाँकि हूँ मैं.

Saturday, August 6, 2011

क्यों?

कदम दो कदम साथ चले जो,
क्या हमकदम थे आज  बने वो.
ताह उम्र जो साथ चलता आया,
आज वो कदम फरामोश क्यों?

मासूम

इत्तेफाक़न काम से घर जल्दी लौटा था,
क्यों न आज बाग़ में टेहेलने जाऊँ.
अपने सबसे हवादार कपड़े पहने,
आधी घिसी हरी चप्पलें डाली,
और किसी पलटन के जवान सा,
हात हिलाता बाग़ की ओर चल पड़ा.

बीच अप्रैल की वो शाम थी,
हल्की हवा में चम्पा की खुशबू थी.
कोई ख़ास बाग़ नहीं था हमारा,
बड़े शहरों के छोटे मोहल्लों जैसा,
हरे मैदान में यहाँ वहां कुछ पेड़,
कुछ फूल, एक फव्वारा, एक पगडण्डी.

छोटा, मगर खुश लगता था हमारा बाग़.
लोग भी कम ही आते थे-
ज्यादातर बुज़ुर्ग, कुछ इक्का-दुक्का जवान.
उस रोज़ भी सब ऐसा ही जान पड़ता था.
पर पगडण्डी के चौथे चक्कर पे मैंने देखा,
आज दो बच्चे अपनी माँ के साथ आए हैं.

उम्र चार या पाँच की होगी उनकी.
छोटी भैय्या को दौड़ा रही है,
भैय्या खिल्ली उड़ाता, रुकता भागता,
छोटी को खूब छेड़ रहा है.
इनके बीच माँ दोनों की सुलह को
तरसती, थक के घास पे बैठ गयी है.

मेरे भी सैर के कुछ दस चक्कर हो चुके थे,
थक के, पेड़ों तले की पुलिया पे बैठ गया.
बैठे-बैठे बच्चों की उछल कूद देख रहा था-
भैय्या भाग के मेरी ओर आता और लौट जाता.
मज़े से मैं भी हलके-हलके मुस्कुरा रहा था के
भैय्या अचानक भाग के मेरे बगल में आ बैठा.

मैंने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा,
शायद मेरी दाढ़ी मूछ देख पहले घबराया हो,
पर एक हल्की, शर्मीली हसी चेहरे पे आई, 
और देखते ही पूरा चेहरा खिलखिला उठा.
अचानक मेरे आस्तीन का सहारा लिए,
मेरे कंधे हाथ रख, मेरे बगल में खड़ा हो गया.

कुछ देर बड़े ग़ौर से, चश्मे के पार मेरी आँखों में देखा,
मैं ज़रा चौंकी नज़रों से मुस्कुराते हुए उसे देख रहा था.
उसने अचानक खिल्खिलाके मुझे अपने गले लगा लिया,
ज़रा पीछे होके मुझे देखा और हसके नीचे कूद पड़ा.
कुछ देर मैं समझ ही न सका के क्या हुआ,
फिर उसे हस्ते हुए अपनी माँ की और भागता देखा.

सोच में गुम, मैं अपने घर की ओर चला पड़ा.
एक अर्सा हुआ, मैं अकेले रहता था,
घर से दफ्तर, दफ्तर से घर भर की ज़िन्दगी थी.
इतवार  भी सोने-सफाई में निकल जाते थे. 
पर आज की बेवक्त इस सैर ने याद दिलाया,
इस ढर्रे के पार, मेरे अन्दर, अब भी कुछ मासूम है.



Thursday, August 4, 2011

कल

आज क्यों न यूं सोचें,
के शायद वो कल ही न मिले
हमें कुछ और सोचने की लिए.

कुछ उन खतों के बारे में,
जिनके जवाब टाले कहके,
के कल लिख लेंगे.

ज़रा उस ढीली चिटकनी का,
जो आज तक बंद नहीं करते,
ये सोचकर के कल सुधार लेंगे.

उन भूले बाग़ों का,
जिनके फूल न देख पाए,
के टेहेलने कल जाएँगे.

थोड़ा उन गर्मियों का,
जब तालाब ताकते रह गए,
 के छलांग कल लगाएँगे.

दस पैसे की हड़बड़ी में,
सालों पहले की बस टिकट का,
शुक्रिया कल अदा करेंगे.

अंग्रेज़ी लेक्चर के बीच,
उन कांपती झिझकती पलकों से,
नज़र कल ज़रूर मिलाएँगे.

बरसती कायनात की आवाज़,
आज छाते तले से सुनकर,
कल को भीग जाएँगे.

खुश ही तो होंगे वो,
बस दो घंटे दूर रहते हैं,
माँ बाबा से कल मिल आएँगे.

सोचें ज़रा के तब क्या हो,
जब आज ही रूठ के कह दे,
जाओ, हम भी अब कल आएँगे. .



Wednesday, August 3, 2011

दोराहा

I happened to remember today,Frost's The Road Less Taken. Was tempted to write a few lines about the same. Hope it inspires even a fraction of the yearning that Frost's did.


भीड़ एक ओर से बुलाती थी,
एक ओर सूनी सड़क इंतज़ार में है.

भीड़ की पुचकार,
कदम उस ओर खींचती.
सूनी सड़क की आहें,
मन को उस ओर रिझातीं.

भीड़ की रंग-ओ-उमंग से आँखें चमक उठतीं,
सूनी सड़क का शांत ठहराव दिल को सुकूँ देता.

प्यार भरी पुचकार,
या अल्साई आहें?
चटक रंगों की चमक,
या ठहरा शाँत सुकूँ? 

उस अनिश्चित दोराहे पर खड़े, आँखें मूंदे,
कुछ बिना सोचे बस अपने कदम बढ़ा दिए.

चार क़दमों पर चहल-पहल,
अगले चार पर एकान्त.
फिर चार पर भागता संघर्ष,
बाद के चार पर चैन की सांस.

अब हर दूसरे चार कदम धीमे होते गए,
और धीमे होते होते मैं बिलकुल रुक गया.

आँखें खोली तो,
मैं सूनी सड़क पे था.
ताज़ी गहरी सांस थी,
दिल में नया सुकूँ था.

पल भर को लगा की वो रंग-ओ-चमक अब न दिखेगी,
पर  वो चमक, इस सुकूँ के सामने फीकी पड़ जाएगी.

Tuesday, August 2, 2011

चाय

चाय मैं पीता नहीं हूँ,
हाँ ग़र खुशबू उसकी,
कोई प्याले में ले आए,
तो ना न कहा जाएगा.

कश्मकश

आज चल निकला हूँ हांफते थके क़दमों पर,
देखूं ग़र मंज़िल मिले इन कशमकशों के पार.