Saturday, August 13, 2011

ये साथी मेरे

मेरी ख़ामोशी पे वो
नाराज़ नहीं होतीं हैं.
फिर भी पर मुझसे  वो,
हमेशा ही बोलती हैं.

बचपन से ही मेरे, हर
सफ़र में साथ रहीं हैं.
रास्ते मंज़िलों के पर,
सवाल पूछतीं नहीं हैं.

मौके ख़ुशी के हों,
इन से बातें हुईं हैं.
वक़्त ग़म का हो,
इन्होंने पनाह दी है.

इनकी छुअन का एहसास,
उँगलियों से रूह तक जाता है.
परत दर परत इक ख़ास,
महक साँसों में छोड़ जाता है.

सिरहाने तकिये के बगल,
या फिर सीने पे  टिकाकर,
कहीं कभी यूँ ही कुछ पल,
सो गया हूँ सब भुलाकर.

है बस छोटी सी इक हसरत,
ये साथी मेरे ताहउम्र शादाब रहें.
आखरी आदाब का हो वक़्त,
तो हाथ में मेरे इक किताब रहे.

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